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उत्तराखंड का द्वंद: पहाड़ और खेत दोनों सूने होने लगे !

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-विशेष रिपोर्ट-

रतन सिंह असवाल, प्रबंध संपादक

देवभूमि उत्तराखंड, जिसकी पहचान घने जंगलों, पवित्र नदियों और हिमालय की गोद में बसी शांत घाटियों से है, आज एक अनकहे द्वंद से जूझ रही है। यह द्वंद है इंसान और जानवर के बीच बढ़ते टकराव का, और इस टकराव से उपजी उस पीड़ा का, जो पहाड़ों को खाली कर रही है। एक ओर जंगली जानवर भोजन की तलाश में खेतों और बस्तियों में घुस रहे हैं, तो दूसरी ओर किसान अपनी बर्बाद होती फसलों को देखकर हताश हो, अपनी जड़ों से उखड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहा है। यह दोहरी चुनौती राज्य के भविष्य पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगा रही है, लेकिन इसका समाधान असंभव नहीं है, बशर्ते दो प्रमुख सरकारी विभाग अपनी जिम्मेदारियों का समन्वय स्थापित कर सकें।
संघर्ष की जड़,
अनियंत्रित वन्यजीव और बिखरी कृषि भूमि !
इस समस्या की जड़ें दो प्रमुख कारणों में गहराई तक समाई हुई हैं। पहला कारण है वनों में बंदरों, जंगली सुअरों और गुलदारों जैसे वन्यजीवों की अनियंत्रित वृद्धि। जब किसी जंगल की वहन क्षमता (Carrying Capacity) जवाब दे जाती है, तो वहां के जानवर भोजन और आश्रय के लिए बाहर का रुख करने को विवश हो जाते हैं। यह कोई आक्रामक घुसपैठ नहीं, बल्कि अस्तित्व की लड़ाई है, जिसका खामियाजा सीधे तौर पर मानव बस्तियों और खेतों को भुगतना पड़ता है।
दूसरा, और शायद उतना ही महत्वपूर्ण कारण, पहाड़ी कृषि की संरचनात्मक कमजोरी है। यहाँ के किसानों की जोत (खेत) बेहद छोटी और बिखरी हुई है। एक ही परिवार के खेत गाँव के अलग-अलग कोनों में फैले हैं, जिससे उनकी एक साथ निगरानी और सुरक्षा लगभग असंभव हो जाती है। किसान यदि एक खेत से जानवरों के झुंड को भगाता है, तो वे दूसरे खेत में नुकसान पहुँचाने लगते हैं। इस अंतहीन चक्र से थक-हारकर और खेती को घाटे का सौदा मानकर, वह अपनी पुरखों की जमीन को बंजर छोड़ने और शहरों में आजीविका तलाशने जैसा पीड़ादायक निर्णय लेने को मजबूर हो जाता है।
समाधान की पहली कड़ी
वन विभाग और वैज्ञानिक प्रबंधन
इस विकराल होती समस्या को नियंत्रित करने की पहली और सीधी जिम्मेदारी वन विभाग की है। विभाग को केवल ‘संरक्षण’ की पारंपरिक नीति से आगे बढ़कर ‘वैज्ञानिक प्रबंधन’ को भी अपनाना होगा। इसका लक्ष्य वन्यजीवों की आबादी को जंगल के क्षेत्रफल और उसकी वहन क्षमता के अनुपात में संतुलित करना है। इसके लिए, बंदरों जैसे जानवरों की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने हेतु बधियाकरण (नसबंदी) जैसे मानवीय और वैज्ञानिक उपाय अपनाए जा सकते हैं। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वनों के भीतर ही जानवरों के लिए पर्याप्त भोजन और जल स्रोत विकसित किए जाएं, ताकि वे बाहर आने के लिए मजबूर न हों।
समाधान की दूसरी और स्थायी कड़ी,राजस्व विभाग और चकबंदी
मानव-वन्यजीव संघर्ष का स्थायी समाधान कृषि को पुनर्जीवित करने में ही निहित है, और इसकी सुनहरी कुंजी राजस्व विभाग के पास है। विभाग को युद्ध स्तर पर पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी (Land Consolidation) की प्रक्रिया को लागू करना होगा। चकबंदी के तहत किसानों की बिखरी हुई छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर उन्हें एक ही स्थान पर एक बड़ा और सिंचित ‘चक’ (खेत) आवंटित किया जाता है।
चकबंदी के लाभ बहुआयामी हैं। जब किसानों के खेत एक जगह पर होंगे, तो वे सामूहिक रूप से या व्यक्तिगत स्तर पर उसकी घेराबंदी (तारबाड़ या सोलर फेंसिंग) आसानी से कर सकेंगे, जो वन्यजीवों को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका है। एक ही स्थान पर खेत होने से सामूहिक निगरानी और चौकीदारी भी संभव हो जाएगी। इससे भी बढ़कर, बड़े चक में ट्रैक्टर, सिंचाई और अन्य आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग सुगम हो जाता है, जिससे उत्पादन बढ़ता है और दशकों से घाटे में चल रही पहाड़ी खेती एक लाभकारी व्यवसाय में बदल सकती है।
*समन्वय से ही संभव है समाधान*
यह स्पष्ट है कि उत्तराखंड की यह दोहरी समस्या किसी एक विभाग के प्रयासों से हल नहीं हो सकती। यह एक समन्वित रणनीति की मांग करती है, जहाँ वन विभाग अपनी सीमा में वन्यजीवों का प्रबंधन करे और राजस्व विभाग चकबंदी के माध्यम से किसानों को उनकी भूमि पर सुरक्षित और लाभकारी खेती करने का अवसर प्रदान करे।
यदि ये दोनों विभाग उत्तराखंड राज्य की स्थापना की मूल भावना को समझते हुए इस व्यावहारिक योजना को ईमानदारी से धरातल पर उतार दें, तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा। यह पहल न केवल राज्य की बंजर पड़ी भूमि को फिर से हरा-भरा करेगी, बल्कि पलायन कर चुके युवाओं को अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए भी प्रेरित करेगी। यह प्रयास उत्तराखंड के सतत विकास को सुनिश्चित करने और पहाड़ की हंसी लौटाने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।

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