मोदी-शाह की सूची में हाशिये पर जाते राजपूत नेता
हिम् तुंग वाणी विशेष
■जातीय संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की इंडी गठबंधन के सियासी दांव के दबाव में आई भाजपा
■तीन नई सरकारों में स्वाभाविक दावेदारों को किया खारिज
प्रबंध संपादक (हिम् तुंग वाणी) की कलम से..
हालिया सम्पन्न हुए चुनावों के प्रचार अभियान के दौरान कांग्रेस और इसके इंडी गठबन्धन ने ओबीसी व अन्य जातियों को संख्या के आधार पर हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व देने का मुद्दा बड़े जोर से क्या उठाया कि इस मोदी-शाह नीत भाजपा इसके दबाव में आ गयी। तीन राज्यों में भाजपा ने 2024 में राष्ट्रीय स्तर पर संदेश देने की खातिर स्वाभाविक व काबिल दावेदारों को नैपथ्य में धकेल कर सिर्फ और सिर्फ जातीय पैमाने पर सरकारों का गठन किया।
एक तरफ राजपूत नेतृत्व के नाम पर भाजपा उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड का नाम गिना रही है किंतु नाथ सम्प्रदाय के मठाधीश योगी आदित्यनाथ को ऑफिशियली किसी जाति में नहीं गिना जा सकता, वहीं उत्तराखंड जैसा छोटा व कम सियासी महत्ता वाले प्रदेश को लेकर भाजपा बड़ा दावा नहीं कर सकती। वहीं ब्राह्मणों को राष्ट्रीय स्तर पर संदेश देने के नाम पर राजस्थान जैसे राजपूत, गुर्जर व जाट बाहुल्य राज्य की कमान भजन लाल के हाथों थमा दी गयी।
दरअसल, राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो राजनाथ सिंह तीन दशक से भाजपा में पहली पांत के नेता रहे हैं। 2014 की सरकार में वह नम्बर 2 पर थे जबकि 2019 में उनका डिमोशन कर उन्हें एक पायदान नीचे खिसका दिया गया। वहीं हालिया चुनाव में डॉ रमन सिंह, वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र सिंह तोमर जैसे हैवी वेट सियासतदानों को बड़ी बेरुखी से हाशिये में पंहुचा दिया गया।
राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के वोट बैंक में सबसे बड़ी हिस्सेदारी ब्राह्मण व क्षत्रिय-राजपूतों की है, हालांकि इनकी संख्या 10 फीसदी के आसपास ही है किंतु यह भाजपा के वोट बैंक का सबसे बड़ा बेस है।
लब्बोलुआब यह कि जातीय प्रतिनिधित्व की इस नई राजनीति का हाल में सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा में मौजूद राजपूत नेताओं को हुआ है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान जैसे हिंदी बेल्ट के बड़े राज्यों में स्वाभाविक तौर पर राजपूत नेता ही नेतृत्व के असल दावेदार थे किंतु इन सभी को मायूस होना पड़ा।
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आगामी आम चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के इस सॉलिड वोट बैंक में कहीं छेद न हो जाएं।