#उत्तराखण्ड

गौचर मेले की आंचलिक रंगत पड़ने लगी फीकी

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अजय रावत अजेय (हिम तुंग वाणी)

एतिहासिक गौचर मेले के स्वरूप में आने लगा बदलाव


■स्थानीय व क्षेत्रीय पहचान होने लगी विलुप्त

■अब महज़ हाट बाजार जैसा माहौल होने लगा

■बिजनौर, सहारनपुर के दुकानदारों का मेला बना

गौचर का औद्योगिक व सांस्कृतिक मेला उत्तराखंड के सबसे प्राचीन व प्रशिद्ध मेलों में से एक रहा है। सात दशक से अनवरत मनाए जाने वाले इस मेले में न केवल सांस्कृतिक समागम होता था बल्कि स्थानीय उत्पादों के जरिये हस्तशिप से जुड़े लोगों की आर्थिकी को भी मजबूती मिलती थी। किन्तु धीरे धीरे इस मेले का स्वरूप बदलने लगा है, स्थानीय उत्पादों के लिए महज़ कुछ स्टाल लगाकर सरकारी खानापूर्ति की जा रही है। मेले में होने वाले व्यापार पर तकरीबन पश्चिमी उप्र के कारोबारियों का कब्ज़ा हो गया है।

भोटिया जनजाति के उत्पाद लगभग गायब

पूर्व में इस मेले में उच्च हिमालय की भोटिया जनजाति द्वारा तैयार हस्तशिप के उत्पाद विशेष आकर्षण का केंद्र होते थे जिनसे इन मेहनतकशों को उचित मेहनताना भी मिलता था और मेले की आंचलिक पहचान भी बनती थी। किन्तु अब यह सिर्फ खानापूर्ति तक ही सीमित रह गया है।

पश्चिमी उप्र के दुकानदार हावी

मेले में लगी करीब 90 फीसद दुकानें उप्र के बिजनौर, सहारनपुर ,मुज्जफरनगर आदि जिलों के लघु व कुटीर दुकानदारों की हैं। मेले में सजी दुकानों में रखा सामान कहीं से भी स्थानीय महक नहीं देता। यह हाट बाजार में सजी दुकानों की तरह अनुभूति प्रदान करता है। गौचर के स्थानीय व्यापारियों का तो यहां तक कहना है कि इस मेले से उन्हें फायदे की जगह नुकसान ही उठाना पड़ रहा है।

सांस्कृतिक समागम गुजरे जमाने की बात

कभी यह मेला गढ़वाल मंडल के सबसे अहम मेलों में से एक था, जिसकी सांस्कृतिक रंगत देखते ही बनती थी। यह न केवल चमोली जनपद बल्कि समूचे गढ़वाल के गौरव का प्रतीक था। लोक संस्कृति से जुड़े जमीनी कार्यक्रमों के चलते इस मेले का आनंद लेने दूर दूर से लोग यहां पंहुचते थे। किंतु अब सिर्फ खानापूर्ति भर को ही लोक संस्कृति व लोक संगीत के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। व्यवसायीकरण की छाया से इस मेले के कार्यक्रम भी अछूते नहीं रहे।

  इन दिनों गौचर में 71वां औद्योगिक व सांस्कृतिक मेला चरम पर है किंतु इसके आयोजन का उद्देश्य तभी चरितार्थ हो सकता है जब इसके स्थानीय व आंचलिक स्वरूप को बरकरार रखा जा सके साथ ही इसके जरिये पैदा होने वाली आर्थिकी भी स्थानीय स्तर के उत्पादकों व दुकानदारों के हित में हो, अन्यथा यह मेला सिर्फ और सिर्फ मैदानों में लगने वाले सोम मंगल बुध बाजार जैसे ही फीलिंग देगा। 

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