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हरिद्वारः पहाड़ की डोमोग्रेफी से नहीं खाता मेल, उत्तराखंड में मिलााना रहा गलत फैसला

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अजय रावत अजेय, हरिद्वार

हरिद्वार को भले ही देवभूमि का प्रवेशद्वार माना जाता है किंतु पहाड़ के परिवेश, संस्कृति व बोली भाषा के पैमाने पर हरिद्वार उत्तराखंड से कहीं भी मेल नहीं खाता। हांलांकि उत्तराखंड गठन के दौरान कुछ नेताओं ने अपने राजनैतिक हितों की खातिर यह फैसला लिया होगा किंतु धीरे धीरे यह फैसला पहाड़ और पहाड़ियत के लिए घातक होते जा रहा है।

यूँ तो समूचा तराई-भाभर पृथक उत्तराखंड की अवधारणा पर कोढ़ की तरह है किंतु हरिद्वार इस कोढ़ पर खाज की भांति है। इस धर्मनगरी में वर्ष भर श्रद्धालुओं का सैलाब भले ही सूबे के खजाने में कुछ मुद्राएं अवश्य बढ़ाता होगा किन्तु इसके ऐबज में अवस्थापना विकास पर खर्च होने  वाले बड़े बजट को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
    बहरहाल, अहम बात आर्थिक नहीं बल्कि सोशल इंजीनियरिंग की है। उत्तराखंड राज्य के गठन के पीछे सिर्फ पहाड़ के विकास की सोच ही नहीं बल्कि एक  पृथक पहाड़ी  सामाजिक-सांस्कृतिक , लोक बोलियों के संरक्षण की अवधारणा भी थी।
    अविभाजित उप्र के दौरान कौशिक समिति की सिफारिशों में हरिद्वार के कुंभ क्षेत्र वाले हिस्से को ही पहाड़ी राज्य में शामिल करने की बात कही गयी थी, किन्तु यदि एक विशुद्ध पहाड़ी आत्मा वाले प्रदेश का गठन करना था तो कुम्भ क्षेत्र का लालच को भी त्याग दिया जाता तो श्रेयस्कर होता।
    बाद में उत्तरांचल नाम से राज्य गठन करने वाले तो 2 कदम आगे बढ़ गए और कुम्भ क्षेत्र के लालच में पूरे हरिद्वार सहित तराई भाभर का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ी राज्य में शामिल कर गए, और नतीजा वही हुआ, फिर एक पहाड़ी नाम के नए राज्य में “पहाड़” सौतेला हो गया।
   किन्तु, जिन भी नेताओं ने निजी स्वार्थों की खातिर पहाड़ी राज्य की अवधारणा पर ऐसा कुठाराघात किया है उनसे बड़ा “पहाड़ विरोधी” कोई नहीं हो सकता..

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