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क्या उत्तराखंड में कांग्रेस को नेस्तनाबूत करने में लगे हैं हरीश रावत?

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अनिल बहुगुणा अनिल

    उत्तराखंड में अंतिम सांसे गिन रही कांग्रेस क्या इस बार वेंटिलेटर से बाहर निकल पायेगी, यह इस बार के

सरस्वती सुमन मासिक पत्रिका का फरबरी विशेषांक: भूटान दर्शन

लोकसभा चुनाव में यक्ष प्रश्न है। राज्य के पिछले विधानसभा चुनावों में हरीश रावत के कारण कांग्रेस पार्टी हांफने लगी थी अब इस बार के लोकसभा चुनाव में भी बूढ़े हो चले हरीश रावत की ज़िद ने कांग्रेस को वेंटिलेटर पर पहुँचा दिया है। आसन्न लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 19 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होना है। 2019 की तरह इस बार कांग्रेस व भाजपा के सिपाही मैदान में उतरे गए हैं। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का पलड़ा अभी तक भारी है।

कांग्रेस नेताओं के पार्टी छोड़कर चले जाने से इस बार कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा है। वहीं हरिद्वार से हरीश रावत के पुत्र मोह ने वीरेंद्र रावत मैदान में उतरवा दिया । राज्य की 5 लोकसभा सीटों पर हरीश रावत ने टिकट बंटवारे में जिद्द कर दी जिसके कारण पार्टी को अंतिम समय में टिकटों की सूची जारी करनी पड़ी। अब हरीश रावत के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।

2014 में हरीश रावत ने सीएम की बागडोर संभाली थी, लेकिन उनकी अगुवाई में 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी करारी हार झेलनी पड़ी। फिर 2022 में भी हरीश रावत ने जिद्द करते हुए चुनाव में लीडरशीप की और अपनी जिद्द पर अंतिम समय मे 26 टिकट अपनी मनमर्जी से बांट दिए परिणाम हुआ कि कांग्रेस जीत के करीब होते हुए भी मात्र 19 सीटों पर ही थम गई, और अब 19 में से भी एक बद्रीनाथ के विद्यायक लोकसभा चुनाव के बीच में ही पार्टी को अलविदा कह कर निकल लिए। हरीश रावत भी अपनी दोनों सीटो पर जीत नहीं पाए थे।
2013 से पहले कांग्रेस प्रदेश में एक मजबूत जनाधार वाली पार्टी रही थी। एनडी तिवारी की सरकार पूरे 5 साल का कार्यकाल पूरा करने में कामयाब रही थी। जब से हरीश रावत केंद्र से उत्तराखंड की राजनीति में सक्रिय हुए, पार्टी का जनाधार लगातार फिसलता रहा, नौबत यहां तक आ पहुँची है कि कांग्रेस के लोकसभा प्रत्या​शियों को हार पहले ही दिखाई दे रही है। हालांकि जनता के मन में क्या चल रहा है, यह अभी बता पाना मु​श्किल है।

किन्तु आज की वर्तमान कांग्रेसी राजनीतिक हालातों के कसूरवार कौन है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। ऐसे में हरीश रावत पर ये आरोप कि कांग्रेस को वेंटिलेटर पर पहुँचाने में उनकी जिद्द ही एक बड़ा कारण थी कहना गलत ना होगा। जिस हरीश रावत को पार्टी के खेवनहार होना चाहिये था उनके फैसलों व जिद ने पार्टी को अंतिम सासों पर छोड़ दिया है। स्वयं लोकसभा का चुनाव न लड़ बेटे को टिकट दिलाना भी हरीश रावत को भारी पड़ सकता है। वैसे त्रिवेंद्र रावत और हरीश रावत का याराना जग ज़ाहिर है। हरीश रावत कांग्रेस कद्दावर नेता माने जाते है, चुनावी मैदान में खुद न उतरकर बेटे के टिकट के लिए अड़े रहे और अंतिम समय में कांग्रेस हाईकमान ने उनके बेटे को टिकट दे भी दिया। मगर मोदी के मैजिक के आगे हरीश रावत के बेटे लोकसभा जीत पाएंगे,इससे हरीश रावत भलीभांति विज्ञ हैं लेकिन बेटे के लिए फ़िलहाल मैदान तैयार करना और आने वाले विधानसभा चुनाव में बेटे की दावेदारी को पुख़्ता करने की हरीश रावत की मंशा ने पार्टि हितों को ताक पर रख दिया। बेटी को वो पहले ही स्थापित करवा चुके है। कुल मिला कर हरीश रावत घुन की तरह प्रदेश में पूरी पार्टी को जर्जर कर चुके है।

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