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त्वरित टिप्पणी:आपदाएँ और पहाड़ , परंपरा की चेतावनी

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रतन सिंह असवाल ‘प्रबंध संपादक’

उत्तराखंड और हिमालयी राज्यों के लिए आपदाएँ कोई नई बात नहीं हैं। भूस्खलन, बादल फटना, अतिवृष्टि, भूकंप ये सब प्रकृति के वे रूप हैं जो पहाड़ों की ज़िंदगी का हिस्सा रहे हैं। किंतु जो बात चिंताजनक है, वह यह कि हमने इन आपदाओं में अपने आप को जबरन डाल दिया,और अब प्रकृति को दोष दे कर मानव और संपत्ति के नुकसान का रोना रो रहे है। पहाडों में बरसों बरस रह कर हमारे पूर्वजों की जीवनशैली आपदा-प्रबंधन की एक मौन और अलिखित पाठशाला थी और वे इस पर सैकड़ों साल तक अमल करते रहे। पुराने वाशिंदों ने नदी के किनारे खेती की, पर बसावट से परहेज़ किया। उन्होंने घर ऐसे बनाए जो हवा, धूप और जल निकासी के अनुकूल हों। पर आज हम नदियों को पाटकर कॉलोनी बना रहे हैं, कंक्रीट के जंगल उगा रहे हैं, पर्यटकों को नदी व्यू दिखाने के लिए उन जमीनों पर होटल और बसावट करते जा रहे है जो कभी हमारी छोटी बड़ी नदियों के पराम्परागत रास्ते रहे थे, और फिर जब वही नदी अपने मूल मार्ग पर लौटती है तो सरकारों और प्रकृति को दोषी ठहराने लगते हैं।
हाल ही में उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में जो भारी बारिश और भूस्खलन हुए, उन्होंने एक बार फिर चेताया है कि हम भूल सुधारें, अन्यथा परिणाम और भी भयावह होंगे। अब वक़्त आ गया है कि हम अपने पुरखों के लंबे अनुभव को आत्मसात कर आधुनिक तकनीकों को अपनाएँ।
सरकार को चाहिए कि वह भी अपने आपदा से निपटने के लिए बने नियमों और उपायों में रद्दोबदल करे।
-ग्राम स्तर पर आपदा न्यूनीकरण का प्रशिक्षण आवश्यक हो, ताकि हर ग्रामीण नागरिक आपदा की स्थिति में सही निर्णय ले सके।
-प्रत्येक संवेदनशील गाँव में अर्ली वार्निंग सिस्टम की स्थापना होनी चाहिए – जिससे समय रहते जान–माल की रक्षा की जा सके।
-भवन निर्माण एवं शहरी नियोजन में पारंपरिक ज्ञान को शामिल किया जाए
आधुनिक आर्किटेक्चर में पहाड़ी भूगोल और भू विज्ञान की समझ ज़रूरी है।
-विकास कार्यों की भूसंरचना परीक्षण के बिना अनुमति न दी जाए। -नदियों के किनारे भवन निर्माण पर उच्चतम न्यायालय के मानकों को सख्ती से लागू किया जाय।
आपदाएं रोकी नहीं जा सकतीं, पर उनसे नुकसान को कम ज़रूर किया जा सकता है, यह काम केवल सरकार का नहीं, समाज के हर हिस्से का है।
हम पहाड़ के लोग गिरते हैं, उठते हैं, और फिर चल पड़ते हैं। पर अब समय है कि हम गिरने से पहले ही संभलें। यही पहाड़ के अस्तित्व और उसकी संतति की रक्षा का एकमात्र रास्ता है।

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