राज्य स्थापना दिवस विशेष: सपनों का नहीं है उत्तराखंड! आलेख-सुरेश नौटियाल
सुरेश नौटियाल
इस वर्ष नौ नवंबर को उत्तराखंड राज्य बने 24 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। राजनीति के हिसाब से इस छोटी अवधि और जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के हिसाब से इस बड़ी अवधि का लेखा-जोखा आम जनता अपने हिसाब से कर तो रही है पर गणित का ज्ञान कम होने के परिणामस्वरूप वह एक बार फिर गच्चा खाने से बच नहीं सकती।
पत्रकार होने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, पारिस्थितिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर सोचते हुए हमें कतई और कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि अपना उत्तराखंड राज्य कहीं बेहतरी की ओर बढ़ा है। जो विकास दिखाया जाता है या वर्णित किया जाता है, वह कास्मेटिक है। ऊपर की परत उतार दें तो नीचे सबकुछ वैसा ही है जैसा उत्तराखंड राज्य बनने से पहले था। अब तो यह बहस भी बेमानी हो गयी है कि राज्य की अंतरिम राजधानी में अंतरिम सरकार का अंतरिम मुख्यमंत्री ऐसे व्यक्ति को क्यों बनाया गया था जिसकी भूमिका उत्तराखंड राज्य आंदोलन में अंतरिम तक नहीं थी और क्यों पहली निर्वाचित सरकार की बागडोर ऐसे व्यक्ति को सौंपी गयी थी जो कहता था कि उत्तराखंड राज्य उसकी लाश पर ही बनेगा। इन सवालों की तरह अनेक सवाल आज अपनी गरिमा, अपनी आभा और अपनी तपिश खो चुके हैं, यद्यपि जिंदा समाजों में ऐसा अपेक्षित नहीं होता है. संविधान के अनुच्छेद-371 को उत्तराखंड में लागू किये जाने, मूल-निवास, भू-कानून और संविधान की पांचवीं अनुसूची लागू किये जैसी मांगें इन 24 वर्षों में सबके खाते में आयी हैं।
आपको याद होगा कि वर्ष 2002 में उत्तराखंड में 70 सीटों पर पहला विधानसभा चुनाव हुआ और राज्य की जनता ने अवसादपूर्ण स्थिति में ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसने इस राज्य को बनने ही नहीं दिया। वर्ष 2007 में जनता ने फिर और एक गलती की. नागनाथ का साथ छोड़कर सांपनाथ को पकड़ लिया और आज तक इन दलों की मोहमाया से मुक्त नहीं हो पाई है। स्वयं को बड़े और राष्ट्रीय मानने वाले राजनीतिक दलों की तो इसी बात में चांदी है कि जनता बड़े सवाल उछालने के बजाय चुपचाप उन्हीं में से एक को बारी-बारी से सत्ता सौंपती रहे। अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को ही दे! हां, अंधी जनता को कांग्रेस और भाजपा दल ही अपने लगते हैं और फिर-फिर वह रेवड़ी इन्हीं दो पार्टियों में बांट देती है, शेष के लिए अंगूठा!
राज्य बनने से पहले और इसके तुरंत बाद जो प्रश्न मुंहबाये खड़े थे वे आज भी जस के तस हैं. हां, ऊपर लिखे कुछ नए विषय और जुड़ गए हैं। इन सबका समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है क्योंकि समाधान की दिशा में सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व से लेकर निकम्मी नौकरशाही तक कोई भी कुछ व्यावहारिक और सार्थक करता दिखायी नहीं दे रहा है। बड़े राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों के लिए राजनीति करना मोटी कमाई वाला व्यवसाय हो गया है और नौकरशाहों का एक बड़ा वर्ग पहले से ही खून चूसने में लगा है. क्या राज्य में आज तक की किसी सरकार ने पूर्व और वर्तमान नौकरशाहों की संपत्तियों-परिसंपत्तियों का सोशल ऑडिट करने की आवश्यकता समझी और क्या यह पता लगाने का प्रयास किया कि उनकी पार्टियों के नेता और कार्यकर्त्ता कैसे हाई-प्रोफाइल जीवन जीते हैं?
आम आदमी और हर गांव-देहात की वही हालत है जो राज्य बनने से पहले थी। वास्तव में समाज का एक बड़ा वर्ग तो यह सोचने लगा है कि राज्य न बनता तो बेहतर स्थिति होती। यह वर्ग घोर निराशा में ऐसा सोच रहा है और इसलिए भी कि उसके आसपास के माहौल में कोई बदलाव नहीं है।उत्तर प्रदेश में रहते हुए जनता को शासन-प्रशासन की जिस उपेक्षा और उदासीनता से आये दिन साक्षात्कार होता था उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है. जितना दूर पहले लखनऊ था, उससे भी दूर और महंगा देहरादून हो गया है।
इसके अलावा कोई ऐसा बड़ा मार्ग नहीं रह गया है जिसके आस-पास की जमीनें दिल्ली-मुजफ्फरनगर से लेकर लुधियाना और न जाने कहां-कहां तक के लोगों ने खरीद ली हैं।
सच में उत्तराखंड राज्य एक गिरवी राज्य है. जमीनों पर बाहरी लोगों के साथ-साथ अपने-आप को साधु, संत और स्वामी-बाबा कहने वालों के अंधाधुंध कब्जे, सरकार पर विश्व बैंक से लेकर न जाने किस-किस का कर्ज, अपने पानी-अपने बांधों पर राज्य का अधिकार नहीं और न जाने क्या-क्या? कोई जब कुपूत साबित हो जाता है तो मां-बाप तक कहते हैं कि ऐसी औलाद से अच्छे तो बेऔलाद ही होते. यही भाव रह-रहकर खासकर उत्तराखंड की पर्वतीय जनता के मन में आता है।
यदि परिवर्तन दिखता है तो वह विधायकों की फौज, मंत्रियों और उनके कारिंदों की टोलियों और बड़ी पार्टी के कार्यकर्त्ताओं और उनपर आश्रित ठेकेदारों में दिखायी देता है। और बदलाव यह है कि पहले मारुति-800 गाड़ी में घूमने वाले लोग अब ऐसी बड़ी-बड़ी और लंबी-लंबी गाड़ियों के मालिक बन गए हैं कि आपको उनके नाम भी ज्ञात न हों. शराब माफिया पर पोषित जो लोग शोर मचाती मोटर साइकिलों में सवार होकर अपना रौबदाब जमाते थे वे अश्लील सी दिखने वाली मोटी-मोटी बड़ी गाड़ियों के भीतर रंगरेलियां मनाते हुए पकड़े जाते हैं।
उत्तराखंड में कार्यरत नौकरशाह भी पहले की अपेक्षा ज्यादा साधन संपन्न हुए हैं. उत्तर प्रदेश में जिन्हें कोई नहीं पूछता था, वे भी उत्तराखंड में आज रसूख और रौब-दाब रखते हैं।उनकी मैडमों ने तो जनता के हित के नाम पर तरह-तरह की संस्थाएं खोल ली हैं और अपनी सुविधाओं के लिए इन्हें कामधेनु की भांति उपयोग करती हैं. आश्चर्य होता है कि हजारों संस्थाओं की उपस्थिति के बाद भी राज्य की स्थिति जस की तस क्यों बनी हुयी है. मंत्रियों, विधायकों और उनके निकट संबंधियों ने नामी-बेनामी तरीकों से कॉलेज और संस्थान खोल लिए हैं और अपनी आने वाली पीढ़ियों की रोजी-रोटी का पक्का बंदोबस्त कर लिया है. अनेक सांसदों का हाल भी यही है।
भ्रष्टाचार और उदासीन नौकरशाही की समस्या कितनी कोणीय है, किसी को मालूम नहीं. तिब्बत के चप्पे-चप्पे की खोज कर पहली बार वहां का नक्शा बनाने वाले पंडित नैन सिंह रावत जैसे अन्वेषक यदि आज जीवित होते तो वह भी इन कोणों का सही आकलन नहीं कर पाते. भ्रष्टाचार और नौकरशाही उन दृष्टिहीन व्यक्तियों की तरह हैं जो हाथी को नहीं देख पाने की स्थिति में स्पर्श द्वारा अपने-अपने ढंग से हाथी को परिभाषित करते हैं।हाथी के पूरे आयामों का वर्णन किसी के पास नहीं है।
इस तरह की विशुद्ध व्यापारिक गहमागहमी में आम आदमी के हालात कतई नहीं बदले हैं. खास तौर पर उत्तराखंड के पर्वतीय लोगों को आज भी अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए उतना ही संघर्ष करना पड़ता है जितना कि उत्तर प्रदेश में रहते हुए या देश की आजादी से पहले करना पड़ता था। हां, सड़कें जरूर गांवों के ज्यादा नजदीक पहुंची हैं लेकिन इन सड़कों के रास्ते तमाम तरह की विकृतियां और भ्रष्टाचार के औजार भी गांवों तक पहुंचे हैं। भ्रष्टाचार के इन शास्त्रों ने समाज की रचनात्मक सक्रियता को ध्वस्त करने के प्रयास ज्यादा किये हैं. यही कारण है कि गांवों में विकास भले ही न पहुंचा हो लेकिन विकृतियां अवश्य पहुंच गयी हैं। इन विकृतियों ने बड़ी संख्या में लोगों को इतना अक्षम बना दिया है कि उन्हें अपने अधिकारों और अपेक्षाओं की चिंता ही नहीं है।
लगता है कि सरकार को ऐसी ही स्थिति चाहिए ताकि जनता चुपचाप अपनी पीड़ा सहती रहे और चुप्पी साधे रहे। नेतागण ऐसी स्थिति में अपने वाक्चातुर्य और प्रेस के एक वर्ग के साथ अच्छे संबंधों के चलते झूठी वाहवाही लूट रहे हैं. इस वाहवाही का फायदा वे अपने आप को सत्ता में बनाये और बचाये रखने में कर रहे हैं। और जब तक कुछ पता चलता है, तब तक अगले चुनाव आ जाते हैं। और जुगाड़ यही रहता है कि देहरादून में कुछ न मिले तो दिल्ली में ही सही। अर्थात, जनता की सेवा नहीं, अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति का धंधा पूरे जोरों पर है। पूरी निर्ममता के साथ यह काम आरंभ से ही चल रहा है. कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं रह गया है। ये पार्टियां एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रूप कुछ भिन्न है पर आकार-प्रकार एक जैसा. यह बात क्या इस बात से साबित नहीं हो जाती कि इन पार्टियों के अनेक नेता दोनों पार्टियों में मंत्रित्व का सुख भोग चुके या भोग रहे हैं!
जनता को जागरूक करने का काम करने वाले क्षेत्रीय दल भी थकते दिखाई दे रहे हैं।जनता भी संघर्ष की राह पर चलने से बेहतर मनरेगा की राह को अधिक लाभकारी समझ रही है। संघर्ष के बारे में उसकी समझ कुंद होती जा रही है और धार भी पैनी नहीं रह गयी है।
आज इस बात की जरूरत अधिक महसूस की जा रही है कि लोग जागरूक हों और घिसी-पिटी पार्टियों के अलावा विकल्प की राजनीति के बारे में सोचें, लेकिन संभवत: उसका धैर्य डोल गया है। जनता जान चुकी है कि इन पार्टियों और उसका चोली-दामन का साथ है। वह जानती है कि जिन पार्टियों ने उनकी तस्वीर और तकदीर पिछले इतने वर्षों में नहीं बदली है उनसे अब और उम्मीद करने की जरूरत नहीं है। छोटी और क्षेत्रीय दलों की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज भी नहीं बन पा रही है। उक्रांद और उपपा जैसी पार्टियां समय-समय पर कुछ-कुछ करने का प्रयास करती हैं पर बड़ी पार्टियों के प्रताप और आभामंडल के होते उनके प्रयास जनता न तो दिखाई देते हैं और न ही मीडिया उन्हें जनता तक ले जाने के प्रयास करता है।
राज्य बनने के समय जो मुद्दे ज्वलंत थे उनसे आज भी आग निकल रही है। उत्तर प्रदेश के साथ परिसंपत्तियों के बटवारे के मामले में उत्तराखंड मुंह की खा चुका है। जनता ने सोचा था कि योगीजी मूल रूप से उत्तराखंड के हैं, लिहाजा परिसंपत्तियों के बटवारे में उत्तराखंड के हितों का ध्यान भी रखेंगे पर ऐसा हुआ नहीं। उत्तराखंड के भीतर उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग इत्यादि की परिसंपत्तियों के बोर्ड उत्तराखंडी जनता को हरिद्वार जैसी जगह मुंह चिढ़ाते दिखाई देंगे पर यह सब देखकर चुभन कोई महसूस नहीं कर रहा। सत्तापक्ष तो बेशर्मी से अपनी असफलता को सफलता के पैक में डालकर बेचने की कोशिश में है ही। पड़ोसी राज्यों के लोगों ने उत्तराखंड के संसाधनों पर कब्जे कर लिए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार भी उत्तराखंड की संपत्तियों और संसाधनों कब्जे किये बैठी है। अभी हाल ही में उत्तराखंड क्रांति दल के बड़े नेता कशी सिंह दिल्ली में हमें बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश हमारे राज्य की दो लाख करोड़ रुपये से अधिक की परिसंपत्तियों और संसाधनों पर कुंडली मारे बैठा है। दोनों राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार होने से चुप्पी व्याप्त है।
गैरसैंण में राजधानी का मुद्दा जस का तस है। भराड़ीसैंण में कुछ भवन खड़े कर यह भ्रम पैदा कर दिया गया है कि आज नहीं तो कल राज्य की राजधानी गैरसैंण क्षेत्र अवश्य पहुंचेगी। सरकारों को विकल्पधारी कर्मचारियों से ज्यादा चिंता दायित्वधारियों को लेकर है। राज्य के जल-जंगल-जमीन पर निजी कंपनियों के कब्जे जारी हैं। वीरपुर-लच्छी से लेकर नानीसार और पोखड़ा तक जिस बेशर्मी से जनता के अधिकार वाले प्राकृतिक संसाधन नौकरशाही के साथ सांठ-गांठ कर पूंजीपतियों को लुटाये गए, उसकी अनेक मिसालें हैं।
पनबिजली परियोजनाओं के लिए आवश्यक जन सुनवाई तक नहीं की जा रही है। इसका नवीनतम उदाहरण पंचेश्वर पनबिजली परियोजना का है। इसे लेकर जहां भी तथाकथित जनसुनवाई की गई, जनता और जागरूक लोगों को बोलने नहीं दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार राजीवलोचन साह से लेकर उक्रांद के वरिष्ठ काशी सिंह ऐरी तक के साथ दुर्व्यवहार किया गया। एक पत्रकार साथी ने बताया कि भक्तों की एक पार्टी ने ऊपर से आदेश दिए थे कि किसी भी स्थिति में जनसुनवाई पंचेश्वर बांध के पक्ष में करवाई जानी चाहिए। और ऐसा किया भी गया और पंचेश्वर ही क्यों, राज्य में अनेक पनविद्युत परियोजनाओं का विरोध समय-समय पर होता रहा और तब-तब सरकार दमन करती रही और प्रभावित जनता सहती रही। प्रभावितों के अलावा राज्य के अन्य लोगों को पोई पीड़ा नहीं. जोशीमठ में भू-धंसाव का नया मुद्दा भी और जुड़ गया है।
पर क्या हार मान ली जाए? आवश्यकता तो इस बात की है कि उत्तराखंड की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को बदलने के लिए कमर कस ली जाए, निराशा हो जाने से काम चलने वाला है नहीं।आज चौबीस साल का घुप्प अंधेरा है तो क्या, कल सुनहरी सुबह की पौ तो फटेगी ही!