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भू-कानून के मुद्दे पर जनदबाब में सरकार, ब्यौरा तलब करने को हुई मजबूर

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●सभी जनपदों से जमीन के खरीद-फरोख्त का ब्यौरा तलब●
भू-कानून और मूल निवास के मुद्दे पर सरकार जनदबाब में है और ऐसे कदम उठाने को मजबूर है जिससे उत्तराखण्ड के मूल निवासियों को इस बात का अहसास हो कि सरकार भू-कानून के मुद्दे पर उनके हित के लिए काम कर रही है। प्रदेश के चार जिलों के बाद अब सभी 13 जिलों से भूमि की खरीद-फरोख्त का ब्यौरा तलब करना, इस मुद्दे पर विश्वास बहाली हेतु उठाया गया कदम माना जा रहा है।
उत्तराखण्ड में धामी सरकार उत्तराखण्ड भू-कानून व मूल निवास समन्वय संघर्ष समिति के प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर किये जा रहे विशाल प्रदर्शनों से अत्यधिक विचलित और चिन्तित है। यह संघर्ष समिति अब तक देहरादून, कोटद्वार, श्रीनगर, गैरसैंण व ऋषिकेश में इस मुद्दे पर विशाल प्रदर्शनों का आयोजन कर रही है। अभी पिछले माह 29 सितम्बर, 2024 को ऋषिकेश में हुई विशाल रैली को सरकार पचा नहीं पायी है और स्वयं उसी दरम्यिान मुख्यमन्त्री धामी को यह घोषणा करनी पड़ी कि सरकार अगले विधानसभा सत्र में सख्त भू-कानून हेतु विधानसभा में विधेयक पारित करेगी।
वैसे भू-कानून के मुद्दे पर हो रहे संघर्ष समिति के प्रदर्शन के दौरान सरकार कुछ न कुछ ऐसा कर या बोल रही है जिससे यह लगे कि सरकार प्रदेश के आम लोगों के हित मंे इस मुद्दे पर फैसले ले रही है। कभी सरकार बोलती है कि मूल निवास प्रमाण-पत्र धारकों को स्थाई निवास बनाने की जरूरत नहीं है, कभी घोषणा करती है कि सख्त भू-कानून के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गयी है। कभी प्रदेश में नियम विरूध खरीदी गयी जमीनों के ब्यौरे तलब कर इन्हें ऐसी जमीनों को सरकार में निहित करने की बात कहती है। सरकार की तरफ से लगातार बयान और आदेश आ रहे हैं लेकिन अभी तक इस तरह को कोई कार्रवाई देखने में नहीं आयी है जिससे प्रदेशवासियों को लगे कि वाकई इन मुद्दों पर सरकार गम्भीर है। आलम यह है कि प्रदेश में मूल निवासियों के भी स्थाई निवास प्रमाण पत्र बनाये जाने जारी हैं।
असल में सरकार भू-कानून के मुद्दे पर पिछली सरकारों व स्वयं अपनी सरकार की घनघोर लापरवाही को छिपाने के लिए इस तरह की बयानबाजी कर रही है। सरकार की भू-कानून के मुद्दे पर खुली लापरवाही जग-जाहिर है। प्रदेश के मुख्यमन्त्री धामी ने जुलाई, 2021 में मुख्यमन्त्री पद संभाला था। उसी समय से ही भू-कानून की मांग हेतु जनदबाब सरकार पर था। सरकार ने उस समय इस मुद्दे पर पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में भू-कानून के अध्यय्न के लिए एक उच्च स्तरीय पांच सदस्यीय समिति का गठन कर इस जनदबाब को कम करने की कोशिश की। लगभग साल भर बाद 5 सितम्बर, 2022 को इस समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। समिति ने अपने 80 पेजों की इस रिपोर्ट में भू-कानून में संशोधन के लिए 23 संस्तुतियां की थी। सरकार पर जनदबाब तो था लेकिन इसके बाद भी धामी सरकार ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के बाद भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। ताजुब्ब तो लोगों को तब हुआ जब सुभाष कुमार समिति की संस्तुतियों पर कार्रवाई करने के बजाय इस समिति की रिपोर्ट के अध्यय्न व परीक्षण के लिए मन्त्रिमंडलीय उप समिति का गठन किया। इसके बाद मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में भी एक समिति का गठन प्रदेश मे सशक्त भू-कानून का मसौदा तैयार करने के लिए किया गया है।
सरकार को उम्मीद है कि ये मन्त्रिमंडलीय उप समिति और मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति अपनी अन्तिम रिपोर्ट यथाशीघ्र ही सरकार को सौंपेंगी। इन दोनों समितियों की अब तक कई बैठकें हो चुकी हैं और माना जा रहा है कि इनकी रिपोर्ट मिलने के बाद ही सरकार सख्त भू-कानून बनाये जाने हेतु विधेयक का मसौदा तैयार करेगी।
प्रदेश में भूमि की खरीद-फरोख्त पर नजर रखने वाले लोगों का आरोप है कि उत्तराखण्ड गठन के बाद से ही प्रदेश में सशक्त भू-कानून न होने के कारण यहाँ की हजारों हेक्टेयर जमीन विभिन्न प्रयोजनों हेतु बाहरी लोग खरीद चुके हैं। अधिकंाश मामलों में जिन प्रयोजनों के लिए बाहरी लोगों ने जमीने खरीदी हैं उनका कथित प्रयोजनों के लिए उपयोग न कर वहाँ होटल व रिजॉर्ट बनाय जाने में इसका उपयोग किया जा रहा है। इन जानकार लोगों का कहना है कि धामी सरकार यदि समिति-समिति का खेल न खेलकर वर्ष-2021-22 में ही सख्त भू-कानून बनाती तो अब तक हजारों हेक्टेयर भूमि को भू-माफिया और बाहरी लोगों के हाथों में जाने से बचाया जा सकता था।
अब राज्य गठन के बाद से अब तक पिछली सरकारों व वर्तमान सरकार ने जो भू-कानून लागू किये उसके नतीजे धामी सरकार के सामने हैं। इसलिए सरकार स्वयं इस बात को स्वीकार कर रही है और मुख्य सचिव द्वारा जिलाधिकारियों को भेजे पत्र जिसमे एक सप्ताह के अन्दर राजस्व परिषद के माध्यम से भूमि की खरीद-फरोख्त का ब्यौरा मांगा गया है, में स्वयं कह रही है कि उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 और अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश-2001 तथा इस अधिनियम के 2007 में संशोधन के अनुसार कोई भी व्यक्ति स्वयं या अपने परिवार के लिये घर बनाने के लिए बिना किसी अनुमति के अपने जीवनकाल मे ं250 वर्ग मीटर भूमि खरीद सकता है लेकिन सरकार स्वयं इस बात की स्वीकार कर रही है कि उसके संज्ञान में आया है कि एक ही परिवार के सदस्यों ने अलग-अलग भूमि खरीद करके प्राविधानों का उल्लंघन किया है। साथ ही कई लोगों ने विभिन्न प्रयोजनों के लिए भूमि खरीदी लेकिन इसका उपयोग उसके लिए नहीं किया गया है।
अब प्रदेश में पिछली सरकारों द्वारा बनाये गये भू-कानूनों पर नजर डालें तो उत्तरखण्ड के लोग वर्ष-2003 में कांग्रेस सरकार के बनाये भू-कानून और इसके बाद वर्ष-2007 में भाजापा सरकार द्वारा संशोधित इस उ0प्र0 जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 (उत्तरांचल संशोधन अधिनियम-2003) से कतई संतुष्ट नहीं थे। इसके खिलाफ अनेक लोगों ने आन्दोलन ही नहीं चलाया बल्कि उन्होंने सोशल मीडिया पर ‘उत्तराखण्ड मांगे भू-कानून’ की मुहिम चलायी थी। परन्तु सरकार तो कुछ और ही सोच रही थी। भाजपा की त्रिवेन्द्र सरकार को चिन्ता इस बात की थी कि प्रदेश में कैसे विनिवेश आकर्षित कर बड़े़ उद्योग-धन्धों को स्थापित किया जाय। सरकार का सोचना था कि यह सवाल आर्थिकी और रोजगार से जुड़ा है इसलिए प्रदेश में भूमि कानून भी इसी के अनुकूल होना चाहिए। इधर, सरकार ने पर्यटन को भी उद्योग का दर्जा दे दिया तथा इसमें 28 प्रकार की गतिविधियों को शामिल कर दिया। शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य को भी औद्यौगिक प्रयोजन में शामिल कर दिया गया। स्वाभाविका रूप से इस सब तरह के उद्योगों को भी भूमि की जरूरत थी। इसे ध्यान में रखते हुए त्रिवेन्द्र सरकार ने 6 दिसम्बर, 2018 को उ0प्र0 जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (अनुकूलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) उत्तराखण्ड (संशोधन) विधेयक-2018 विधानसभा में पारित कर दिया। इस ‘काले कानून’ के पास होते ही उत्तराखण्ड में बाहरी व्यक्तियों के लिए जमीन खरीद-फरोख्त पर जो नकेल डाली गयी थी, अब इस अधिनियम के जरिये उसमे ंखुली छूट मिल गयी।
त्रिवेन्द्र सरकार ने इस अधिनियम में धारा-143-क और 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ो में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को ही खत्म कर दिया। सरकार ने इस अधिनियम में भूमि खरीद की पूर्व बन्दिशों को खत्म करते हुए उद्योगों के नाम पर पहाड़ में कितनी भी जमीन खरीदने की खुली छूट दे दी। भाजपा सरकार इस अधिनियम के जरिये केवल पहाड़ में ही इस कानून को लागू करना चाहती थी लेकिन मित्र विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस ने भी सरकार का पूरा समर्थन किया और पहाड़ के साथ ही इस कानून को मैदानी क्षेत्र में भी लागू करवा दिया। कांग्रेस के तत्कालीन विधायक मनोज रावत ने ही इस कानून का सदन में डटकर विरोध किया।
त्रिवेन्द्र सरकार के इस ‘काले कानून’ के खिलाफ सोशल मीडिया पर चली मुहिम और जनभावनाओं को वर्तमान धामी सरकार ने पूरी तरह अनसुना किया हो ऐसा भी नहीं है। जुलाई, 2021 में प्रदेश में मुख्यमन्त्री का पद संभालने के बाद धामी सरकार ने भू-कानून के अध्ययन व परीक्षण के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। इसके बाद इसकी रिपोर्ट आने के बाद इसके अध्यय्न के लिए मन्त्रिमंडलीय उप समिति बनी। फिर सशक्त भू-कानून के मसौदे हेतु मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बनी है लेकिन तमाम समितियां बनने के बाद भी प्रदेश में जमीन की खरीद-फरोख्त रोकने के लिए जमीनी कर्रवाई सरकार ने अभी कुछ नहीं की है। आलम यह है कि आज प्रदेश में कई स्थानों पर जमीन के रेट इस कदर बढ़ चुके हैं कि खुद प्रदेश के मूल निवासी भी अपने निवास हेतु 250 वर्ग मीटर जमीन नहीं खरीद पा रहे हैं।
उत्तराखण्डी लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान से जुड़ा जमीन का मुद्दा उनके लिए सदैव संवेदनशील रहा है। यह मुद्दा तब और भी अधिक महत्वपूर्ण और संज्ञेय हो जाता है जब प्रदेश में कृषि योग्य भूमि का रकवा लगातार कम हो रहा हो। सरकार के पास भी प्रदेश में भूमि उपयोग से सम्बन्धित नवीनतम आंकड़े नहीं हैं लेकिन एक अनुमान के अनुसार राज्य गठन के बाद प्रदेश में एक लाख कृषि भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्यों के लिए बदला जा चुका है। इसके हिसाब से जहाँ उत्तराखण्ड गठन से पूर्व कुल भूमि में कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत 14 था, वहीं अब यह घट कर 6 से 7 प्रतिशत तक रह गया है। ऐसी स्थिति में प्रदेश की बची-खुची कृषि भूमि को सुरक्षित रखने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी भी सरकार की ही है। भविष्य में कहीं ऐसा न हो कि यहाँ के मूल निवासी तो अपनी भूमि से वेदखल हो जांय और बाहरी व्यक्ति ही यहाँ की भू-सम्पति के मालिक बन बैठें। ऐसा होने पर स्वाभाविक रूप से इस प्रदेश की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता को बचाये रखना मुश्किल होगा और इसके भविष्य में दूरगामी परिणाम भी सामने आयेंगे।

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