मूल निवास :नर्सिंग सेवा से सम्बंधित वायरल सूची से और बढ़ी रार
हिम् तुंग वाणी स्पेशल
■नर्सिंग सेवा में अभ्यर्थियों की एक तथाकथित सूची हुई वायरल
■ इस सूची में राजस्थान के अभ्यर्थियों की भरमार
■मूल निवास बनाम स्थाई निवास की रार और बढ़ी
इन दिनों सोशल साइट्स पर वायरल हो रही एक सूची नौकरियों में अपने हिस्से में अतिक्रमण को लेकर आक्रोशित पहाड़ी जनमानस के गुस्से की आग में घी का काम कर रही है। दरअसल, इन दिनों प्रदेश में नर्सिंग सेवाओं हेतु आये आवेदनों की स्क्रीनिंग की जा रही है, लेकिन इस बीच एक सूची वायरल हो रही है, जिसमें दर्ज तकरीबन सभी अभ्यर्थी राजस्थान के मूल निवासी हैं, जबकि कतिपय उप्र मूल के हैं।
तीसरी श्रेणी की इन भर्तियों में उत्तराखंड के मूल निवासियों के बजाय राजस्थान व अन्य बाहरी राज्यों के अभ्यर्थियों के शामिल होने की सुगबुगाहट से बेरोजगारों ही नहीं बल्कि आम पहाड़ी समाज में उबाल है। पहाड़ी सरोकारों से जुड़े लोगों का मानना है कि सीमित संसाधनों वाले उत्तराखंड राज्य में सरकारी नौकरी आजीविका का प्रमुख साधन है। राज्य गठन हेतु बीती सदी के आख़िरी दशक में उग्र हुए आंदोलन की जड़ में भी सरकारी नौकरियों में बाह्य अतिक्रमण ही था। राज्य गठन के बाद भी यह अतिक्रमण स्थाई निवास प्रमाण पत्र के चलते जारी रहा।
समूह ग की सरकारी नौकरियों के साथ चतुर्थ श्रेणी व आउटसोर्स की नौकरियों में भी बाह्य लोगों द्वारा स्थायी निवास प्रमाण पत्र बनाकर मूल पहाड़ी बेरोजगारों के अधिकारों पर डाका डाल दिया। सूत्रों के मुताबिक इन दिनों गतिमान नर्सिंग भर्ती में भी बाहरी लोगों द्वारा फर्जी तरीके से स्थाई निवास प्रमाण पत्र बनाकर आवेदन कर दिया गया। इस बाबत एक सूची वायरल होने के बाद तो इस सम्बंध में आंदोलनरत लोगों का पारा सातवें आसमान पर पंहुच गया है।
भले ही 20 दिसम्बर को मूल निवास के बाबत सरकार द्वारा एक आदेश जारी कर कहा गया है कि जिन लोगों के पास मूल निवास प्रमाण पत्र है उन्हें अब स्थाई निवास प्रमाण पत्र बनाने की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन असल सवाल यह है कि लचीले नियमों के चलते स्थायी निवास बना बैठे बाहरी प्रदेश के लोगों को नौकरियों, संसाधनों व सुविधाओं में बराबरी के हक से कब बाहर किया जायेगा। ऐसे में फिलहाल सरकार के समक्ष आयी इस नई चुनौती की धार कम होती नजर नहीं आती। बीते दो दशक में स्थायी निवास के फार्मूले का लाभ उठाकर बाहरी लोग राज्य के मूल निवासियों के हकों पर बड़े पैमाने पर कुठाराघात कर चुके हैं। अब सरकार को मूल निवासियों के स्वाभाविक अधिकारों को महफूज़ रखने को कोई न कोई ठोस फैसला लेना ही होगा अन्यथा यह मसला हमेशा सरकार व सिस्टम की गले की फांस बना रहेगा।