मूल निवास-भू कानून: नेगी दा की हुंकार, परेशान सिस्टम व सरकार
■24 को देहरादून के परेड ग्राउंड में जुटेंगे प्रदर्शन कारी
■लोक गायक नेगी के खुले आह्वान ने उड़ाई सरकार की नींद
■24 से पहले सरकार को लेना होगा कोई बड़ा फैसला
■मूल निवास व भू कानून को लेकर उबलने लगा है पहाड़ी समाज
अजय रावत अजेय (संपादक)
मूल निवास व भू कानून को लेकर भले ही लम्बे समय से पहाड़ व मूल पहाड़ी समाज में छटपटाहट है किन्तु एनडी तिवारी सरकार की चूलें हिलाने वाले नरेंद्र सिंह नेगी ने हाल ही में खुल कर आह्वान क्या किया कि सरकार की पेशानी पर बल पड़ गया। नेगी ने आगामी 24 दिसम्बर को परेड ग्राउंड में आहूत मूल निवास व भू कानून समन्वय संघर्ष समिति की रैली को खुलकर समर्थन देते हुए पहाड़ी समाज को इस रैली में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने का आह्वान किया। इस बारे में एक लघु कविता के साथ उनके द्वारा किया गया आह्वान सोशल मीडिया पर जबरदस्त तरीके से ट्रेंड कर रहा है।
■क्यों जरूरत महसूस हो रही सख्त भू कानून की■
दरअसल, उत्तराखंड बनने के बाद जितनी भी सरकारें सत्तासीन हुईं, सभी ने पृथक पहाड़ी राज्य की अवधारणा के साथ ही खिलवाड़ किया। आज हालात यह है कि भूमि खरीद का कोई कानून न होने के कारण पहाड़ की जमीन पर बाहरी कॉरपोरेट गिद्धदृष्टि गड़ाए हुए हैं। न केवल मुख्य शहरों व कस्बों बल्कि सुदूर अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों में भी बाहरी खरीददारों द्वारा जमकर भूमि खरीदी जा रही है। यदि इसी दर से पहाड़ की जमीनों पर बाहरी कारोबारियों का स्वामित्व बढ़ता रहा तो इस बात से भी इंकार नहीं जा सकता कि एक दिन मूल पहाड़ी भूमिहीन होने की कगार पर पंहुच जाएगा।
●मूल निवास है सबसे अहम व ज्वलंत मुद्दा●
स्थायी निवास के फार्मूले ने तो पहाड़ी राज्य आंदोलन के मूल कारण को ही खण्डित कर दिया। नब्बे के दशक में अविभाजित उप्र में रोजगार के लिए तरसते बेरोजगारों को उम्मीद थी कि अलग राज्य गठन के बाद उनके सामने नौकरियों के पिटारा खुल जायेगा। लेकिन , स्थाई निवास प्रमाण पत्र के लिए बनाई गई उदार शर्तों के चलते बाहरी लोग आसानी से स्थायी निवासी बना गए और इसी बुनियाद पर आसानी से नौकरियां पाने लगे।
अपने आह्वान में नरेंद्र सिंह नेगी यह भी जोड़ते हैं कि करीब 40 लाख ऐसे लोग हैं जो बाहरी होने के बावजूद स्थायी निवास प्रमाण पत्र के आधार पर उत्तराखंड के संसाधनों व नौकरियों में बराबर के साझीदार बन बैठे हैं।
पहाड़ी सरोकारों से जुड़े लोगों का मानना है कि मूल निवास के लिए 1950 की डेडलाइन होना अनिवार्य है जबकि स्थायी निवास के लिए राज्य गठन से 15 साल पूर्व से राज्य में निवास करने वालों की ही अहर्ता स्वीकार की जाए।
◆सरकार ले सकती है रैली से पहले कोई फैसला◆
हालांकि सरकार के लिए मूल निवास व भू कानून पर कोई बड़ा फैसला लेना गर्म दूध की तरह है। सिस्टम में बैठे लोग व सरकार के अपरोक्ष सहयोगी पूंजीपतियों के साथ साथ वोट बैंक की मजबूरियां सरकार के लिए गले की हड्डी बने हुए हैं, किन्तु तमाम संगठनों के साथ आम पहाड़ियों की भावनाओं को नजरअंदाज करना अब शायद सरकार के लिए मुमकिन नहीं होगा। दशकों से सुलगती इन जनभावनाओं में नरेंद्र सिंह नेगी के आह्वान ने घी का काम किया है। यदि सरकार ने इस आग को जल्द ठंडा न किया तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह आग 2024 के चुनाव के नतीजों में सत्ताधारी पार्टी की संभावनाओं को भी झुलसा सकती है। ऐसे में बहुत सम्भव है कि 24 की रैली से पहले सरकार कम से कम मूल निवास पर दिल बहलाने को ही सही कोई संसोधन प्रस्ताव ला सकती है।