#देश

इंजीनियर बिहारी लाल दनोसी को साहित्य साधना के लिए डॉक्टरेट की उपाधि

Share Now

दिल्ली।

साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर एवम् 15 पुस्तकों के प्रकाशन के लंबे अनुभव उपरांत मैजिक बुक ऑफ रिकॉर्ड एसोसिएटेड विद मैजिक एंड आर्ट यूनिवर्सिटी द्वारा फ़रीदाबाद के दशमेश प्लाजा में आयोजित भव्य दीक्षांत समारोह में बिहारी लाल दनोसी जी को मानद डॉक्टरेट उपाधि से अलंकृत किया गया।
अवार्ड दिए जाने पर मुख्य अतिथि श्री भाटिया जी द्वारा डॉक्टर बिहारी लाल दनोसी के कार्यों की सराहना करते हुए मा. मुख्य मंत्री उत्तराखंड को भी नाम प्रेषण की बात कही गई। सुप्रसिद्ध म्यूजिशियन डॉक्टर सी पी यादव ने डॉक्टर दनोसी की उम्र 18 वर्ष एवम् अनुभव 62 वर्ष बता कर म्यूजिशियन माहौल से सभागार को गदगद कर दिया। मैजिक बुक ऑफ रिकॉर्ड के डॉक्टर रोहेला द्वारा कहा गया कि हम स्वयं को भी धन्य मन रहे है कि श्री दनोसी को डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करने का अवसर मिला।

■■■■■■■■■■■■■■■■■■दनोसी जी का जीवन वृत■■■■■■■■■■■■■

दनोसी जी की जीवन यात्रा 20 मई 1944 से शुरू होती है। गडोली गाँव, पट्टी- नांदलस्यूँ, पौड़ी में स्व॰ कीर्ति राम दनोसी व स्व॰ विश्वेस्वरी देवी जी का परिवार विभिन्न प्रकार की आर्थिक, सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं से जूझते हुए अत्यन्त संघर्षमयी जीवन यापन कर रहे थे। 20 मई को विश्वेस्वरी देवी जी ने एक होनहार बच्चे को जन्म दिया। विश्वेस्वरी देवी जी को सभी लोग बिसई कहकर पुकारते थे। दनोसी जी की बाल प्रतिभा का जब गडोली मिशन स्कूल की कक्षा 01 की कक्षाध्यापक ने प्रिंसिपल मिस शैलवी के सामने बौद्धिक परीक्षण लिया तो वे दोनों महिलाएं दंग रह गयी। दनोसी जी ने कक्षा दो के स्तर के प्रश्नों के उत्तर बहुत ही आसानी से दे दिए। स्कूल में दाखिला लेने के बाद दनोसी जी एक प्रतिभावान छात्र के रूप में पहचाने जाने लगे। एक दिन मिस शैलवी ने बिसई जी से कहा- ‘‘बिसई जी, इस बच्चे को खूब पढ़ाना-लिखाना। देखना यह बच्चा एक दिन अफसर जरूर बनेगा।’’
आज वही प्रतिभावान छात्र बिहारी लाल दनोसी नाम से प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में सम्पूर्ण उत्तराखंड सहित उत्तर भारत में ख्याति पा चुका है। दनोसी जी की ‘‘भवबंधन’’ नामक पुस्तक है जो कि उनकी अपनी आत्मकथा है, उसमें वे लिखते हैं कि चोपड़ा गांव के उनके एक मदनू चाचा थे। वे एक दिन गडोली आए हुए थे। उस दौरान बिसई देवी जी दनोसी जी को स्कूल में भर्ती करने के लिए बेचैन थी। बिसई देवी जी ने मदनू जी से कहा कि हर्षपति को स्कूल में भर्ती करना है। बिसई देवी जी ने बहुत ही लाड में दनोसी जी का नाम हर्षपति रखा था। वे दनोसी जी को इसी नाम से पुकारती थी। मदनू चाचा जी ने सलाह दी कि इसका नाम हर्षपति के बजाए बिहारी लाल लिखवाओ। दनोसी जी आज भी अफसोस व्यक्त करते हैं कि मदनू चाचा जी की सलाह को मेरे माता-पिता ने किस आधार पर मान ली थी, यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। क्योंकि हर्षपति अपने आप में एक सुन्दर नाम है। दनोसी जी अपने प्रचलित नाम को लेकर हंसते हैं कि हर्षपति का बना मैं बिहारी लाल.
माँ-बाप द्वारा सुझाया गया नाम ही हमको स्वीकारना चाहिए। बिसई देवी जी ने आपका नाम हर्षपति इसलिए रखा होगा क्योंकि उन्होंने आपकी मुखाकृति को सबसे अधिक बार देखा। आपका हँसता-मुस्कराता चेहरा आज भी वह उल्लास व्यक्त करता है जिसे आपकी माँ ने आपके बचपन में भाँप लिया था। माँ बच्चे की निमार्ता होती है। निमार्ता अपनी रचना का नाम अपनी स्नेहमयी भावनाओं, भोगे गए कष्टों, त्याग व भावी अभिलाषाओं को आधार बनाकर रखता है। आप 80 साल के हो गए हैं। आपका हर्ष और उल्लास सदा बना रहे। साहित्य रचने का जोश अब और दोगुना हो जाए, ऐसी अभिलाषाएँ हैं.
खैर, आपको बिहारी लाल दनोसी जी के नाम से ख्याति प्राप्त करनी थी, सो आप वह ख्याति पा रहे हैं और आगे भी पाते रहेंगे। ‘‘गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास’’ नामक पुस्तक आपकी पहली ऐतिहासिक पुस्तक है। आप पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने गढ़वाल के शिल्पकारों को यथायोग्य स्थान देने का प्रयास किया। भारत सहित विश्व के सभी इतिहासकार जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति को नष्ट करना है तो उसके किए गए कार्यों को ध्वस्त कर दो। आदमी तो मर ही जाता है, साथ-साथ उसकी कृति भी मार दी जाती है, तब जब इतिहास लिखने वाले पेन के स्थान पर रबर/इंक रिमूबर या धब्बा पेन का इस्तेमाल अधिकाधिक करते हैं। भारत देश में अधसंख्य जनों को हासिए से बाहर करना कुछ लोग अपना परम धर्म समझते हैं। यही नहीं उनकी रचनाओं को भी हासिए से बाहर ऐसे स्थान पर रख दिया जाता है जहाँ वे दिखती ही नहीं हैं। किसी को भूले-भटके दिख भी जाए तो उसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है। तथापि कुछ ऐसे भी भले हैं जो इस बाधा को तोड़कर वंचित समाज के लोगों को, उनके कार्यों की सराहना करते हैं, उन्हें हाथ पकड़ कर शिखर पर खींच ही लेते हैं। उन भले लोगों का हार्दिक आभार जिन्होंने बिहारी लाल दनोसी जी की साहित्य साधना को महसूस किया और उनको वह सम्मान देने का निर्णय लिया जिसके वे जबरदस्त हकदार हैं।
बिहारी लाल दनोसी जी ने समस्त उत्तराखंड के शिल्पकार समाज के वास्तुकारों, प्रस्तरकारों, काष्ठकारों, ताम्रकारों, संगीतकारों व राजनीतिकारों को इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया है। जो नाम दनोसी जी ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक में लिख लिए हैं, वे व्यक्ति अमर हो गए हैं। इस पुस्तक में श्री अमर दास ग्राम-केलसू भंकाली, पट्टी-बाड़ाहाट टिहरी के बारे में लिखा है कि श्री अमर दास जी ने सन् 1942 में नरेन्द्रनगर से प्राइमरी की शिक्षा प्राप्त की। वे प्राइमरी की परीक्षा देने के लिए 200 किलो॰5 पैदल चल कर आते थे। गौर करने वाली बात यह है कि अमरदास जी उस काल में आगे अध्ययन करना चाहते थे किन्तु महाराजा ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी। अपने क्षेत्र में सबसे अधिक पढ़े-लिखे होने के कारण इनको न्याय पंचायत का सदस्य चुना गया। कुंदी टम्टा जी ग्राम ढांढरी निवासी समाज सुधारक के साथ-साथ उच्च कोटी के ताम्रकार थे। 1945 में पौड़ी कलक्ट्रेट की अंग्रेजी की टाइप मशीन खराब हो गयी थी तब इस मशीन को श्री कुंदी टम्टा जी के पास लाया गया। उन्होंने मशीन को बनाया व सरकार को 5 रुपए का बिल दिया था। इस बिल को देखकर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने इस धनराशि को ज्यादा बताया था। इसी श्रेणी के सैकड़ों विभूतियों के बारे में उन्होंने इस पुस्तक में स्थान दिया है। इस अद्वितीय कार्य के लिए वंचित समाज दनोसी जी का सदा कर्जदार रहेगा.
बिहारी लाल दनोसी जी ने अपने जीवन काल में कई भूमिकाएं निभाई। पेशे से वे एक इंजीनियर हैं। पौड़ी के सांस्कृतिक मंचों पर अपने अभिनय की छाप छोड़ी। साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न पुस्तकें लिख कर एक संवेदनशील और शोधार्थी लेखक होने का गौरव अजिर्त किया। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने विभिन्न संगठनों से जुड़कर समाज सेवा की। लम्बी-चौड़ी कद काठी के व्यक्ति नारियल की तरह हैं। बाहर से सख्त और अंदर से मुलायम। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दनोसी जी विनम्र, चिंतनशील और गम्भीर स्वभाव के हैं। हर किसी के प्रति आत्मिक दृष्टिकोण रखना उनका स्वभाव है। उन्होंने अपने साहित्य में महिलाओं, वंचितों, शोषितों का दर्द बहुत ही शालीनता व सादगी से व्यक्त किया। उनके साहित्य में इंजीनियरी साफ झलकती है. जटिल से जटिल मुद्दे को वे सहजता से प्रस्तुत कर देते हैं।
सामाजिक विभेद और प्रताड़ना का शिकार हुआ व्यक्ति बहुत गहरे पैठ कर लिखता है। उसकी लेखनी चापलूसी की स्याही में डूबी हुई नहीं होती है, वह जो लिखता है कड़ा सच लिखता है। समाज के कटु अनुभव उसे बार-बार कचोटते हैं, उकसाते हैं कि लिख उस सच्चाई को जिसे तूने भोगा है। दनोसी जी के साहित्य में वह पीड़ी अनायास ही झलक जाती है। दनोसी जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा। जिस भी विधा में लिखा उसमें उनकी आंतरिक पीड़ा हृदयतल से उतरकर कागज में और फिर पाठक के मन में बैठ गयी। उन बारीक तंतुओं को शाब्दिक रूप वही दे सकता है जिसनें भोगा होगा।
साहित्य के क्षेत्र में उनका जो सबसे बड़ा योगदान है वह ‘‘गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास’’ लेखन। इस पुस्तक में उन्होंने सामंती समाज पर करारे तमाचे मारे हैं। उन्होंने इस पुस्तक में उस क्रूर सामंती व्यवस्था को उजागर करते हुए लिखा- ‘‘सामंती कुप्रथा में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु किसी भी शिल्पकार को जबरन पकड़कर उसकी बलि दे दी जाती थी। अनेक क्रूर सत्य उनकी इस पुस्तक में संग्रहीत हैं। हिन्दु कोड बिल, जयानन्द भारतीय जी का डोला-पालकी आँदोलन, महात्मा गाँधी का दलित हित चिंतन, एतिहासिक पूना पैक्ट, गढ़वाल में भूमि व्यवस्थाएँ, गढ़वाल तथा कुमाऊँ के समाज सुधारकों का जिक्र इस पुस्तक में है.
शिल्पकारों का सामाजिक जीवन, शिल्पकारों का साहित्यिक योगदान, शिल्पकार महिलाओं की वतर्मान स्थिति, अनुसूचित जातियों में स्वहित चिंतन जैसे उपबिन्दुओं पर उन्होंने विस्तार से लिखा है। इस पुस्तक का सबसे बेहतरीन हिस्सा वह जिसमें उन्होंने शिल्पकार समाज के मूधर्न्य शिल्पियों की लम्बी नाम सूचि उनके विशेषज्ञता के साथ प्रस्तुत की है। वे शिल्पी जिन्होंने गढ़वाल मंडल को अपने शिल्पों के माध्यम से बेहतरीन बनाया, उनका यशोगान किया जाना बहुत आवश्यक है। उनके योगदान को अमर किया जाना नितांत जरूरी है। श्री दनोसी जी ने गढ़वाल मंडल के उन महान दिवंगत शिल्पी विभूतियों का यशोगान करके बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। ये महान व्यक्ति हैं जिन्होंने उत्तराखंड में बेडौल पत्थरों को तराश कर उनमें जान फूंक दी। आज भी उनके बनाए मंदिर, मठ, सरकारी भवन, निजी भवन शान से खड़े हैं और उन महान शिल्पकारों की याद दिलाते हैं। ये मूर्तिकार, प्रस्तरकार, काष्ठकार, ताम्रकार, संगीतकार, वादक हैं, जिन्हें इतिहास में कहीं कोई स्थान ही नहीं दिया गया था। दनोसी जी के इन अद्वितीय कार्य की बहुत-बहुत प्रशंसाएँ.
दनोसी इंजीनियर डाक्टर बिहारी लाल दनोसी के नाम से जाने जाएँगे. उनको डाक्टर क्यों कहा जाएगा ? देखते हैं उनकी साहित्य साधना…
दनोसी जी का रचना संसार-
(1)- गढ़वाल के शिल्पकारों का इतिहास-
(2)- शिल्पकार बनाम पिछड़ी जाति बनाम आरक्षण
(3)- उर्जा प्रदेश उत्तराखंड के आधार स्तम्भ
(4)- सरकारी कलम (कहानी संग्रह)
(5)- गरीब की माँ (कहानी संग्रह)
(6)- जमीन आसमान (उपन्यास)
(7)- चंद्रापुरम (उपन्यास)
(8)- सौतेली माँ
(9)- आँचल का दाग
(10)- हर-हर केदार (केदारनाथ आपदा पर लिखा उपन्यास)
(11)- अ बंडल आफ बर्डन (अंग्रेजी में लिखी आत्मकथा)
(12)- भवबंधन (आत्मकथा का हिन्दी रूपान्तरण अप्रकाशित)
(13)- इंद्रधनुष (हिन्दी-उर्दु शायरियों का संकलन अप्रकाशित)
(14)- पहाड़ी धुन (गढ़वाली गीतों का संग्रह)
(15)- माई ओल्डेज डायरी (अपनी वृद्धावस्था की घटनाओं का संकलन)
(16)- पिंजड़े का पंछी (उपन्यास)
दनोसी जी को मिले ये सम्मान
1- उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1985-86 में बीस सूत्रीय कायर्क्रम में सर्वोत्म कार्य करने के लिए 21 मार्च 1987 में मानपत्र सहित नगद धनराशि देकर सम्मानित किया।
2- उत्तराखंड की प्रतिष्ठित मेधदूत नाट्य संस्था देहरादून ने 27 जुलाई 2024को सांस्कृतिक गतिविधियों के स्मृति चिह्न् भेंट करके सम्मानित किया।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *