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मीडिया: सत्ता प्रतिष्ठानों ने स्वयं ही पैदा किये यह भष्मासुर

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अजय रावत अजेय, सम्पादक

भारत व पाकिस्तान के मध्य विगत एक सप्ताह से जारी तनाव व झड़पों के बीच प्रतिरक्षा मंत्रालय को मीडिया चैनलों से अपील करनी पड़ी कि मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए रिपोर्टिंग में सयम बरतें। वहीं इस बात की भी अपेक्षा की गई कि तनावग्रस्त सीमावर्ती क्षेत्रों में सजीव कवरेज़ भी न की जाए।
दरअसल, बीते दो दशक में इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल मीडिया का कैनवास बड़ा होने के साथ साथ गला काट प्रतिस्पर्धा भी शुरू हुई है। सत्ता प्रतिष्ठानों ने भी मीडिया के इस सहज व व्यापक पंहुच वाले स्वरूप को भांपते हुए इसका उपयोग अपने हित में करने की चेष्टा शुरू कर दी, यहां तक कि सत्तासीन दलों द्वारा अपने राजनैतिक प्रचार हेतु इसे एक अपरोक्ष माध्यम बना दिया गया। कुकुरमुत्तों की भांति नित नए चैनल शुरू होने लगे और सत्ता अथवा सत्ता के सहयोगी केंद्रों द्वारा इन्हें पोषित भी किया जाने लगा। चर्चा तो यहां तक होने लगी कि किसी भी मीडिया हाउस के संपादकीय विभाग का रिमोट सत्तावीरों के हाथ में चला गया है, यानी कि किन खबरों को प्रसारित करना है अथवा किस कलेवर के साथ प्रकाशित व प्रसारित करना है यह भी कहीं अन्यत्र से नियंत्रित होने लगा है।
नतीजा यह हुआ कि तकरीबन सभी व्यावसायिक मीडिया हाउस इतने सशक्त हो चले कि अनेक गंभीर व संवेदनशील मसलों पर भी मीडिया ट्रायल करने लगे। यहां तक कि मीडिया ट्रायल की छाया तंत्र के फैसलों पर भी पड़ने लगी। साधारण शब्दों में कहा जाए तो सत्तासीनों द्वारा एक तरह से भस्मासुर नामक असुर तैयार कर दिया गया।
इधर इन दिनों पहलगाम के नृशंस हत्याकांड के बाद भारत व पाकिस्तान के मध्य जब अघोषित युद्ध जारी है तो कट थ्रोट कॉम्पिटिशन के इस दौर में टीआरपी की ललक ने इन चैनलों को इतना अधीर कर दिया कि बे-सिर पैर की सूचनाओं को प्रसारित किया जाने लगा। पत्रकारिता अथवा ऐंकर पद की तमाम गरिमा को तार तार करते हुए दर्शकों तक मनगढ़ंत खबरें परोसी जाने लगीं। देश के अंदर युद्ध का माहौल बनाकर एक पैनिक पैदा किया जाने लगा। मीडिया का ऐसा निकृष्टतम स्तर देख जागरूक देशवासी चिंतित तो थे ही किन्तु जब यह भस्मासुर रूपी मीडिया पूरी तरह बेलगाम होने लगा तो स्वयं प्रतिरक्षा मंत्रालय को इसका संज्ञान लेना पड़ा और मीडिया हाउसेज को अपील करनी पड़ी कि इस संवेदनशील समय में ऐसी रिपोर्टिंग व लाइव कवरेज़ से परहेज़ रखें।
हालांकि, मंत्रालय की अपील का कोई बड़ा असर इन मीडिया कम्पनियों पर पड़ता नजर नहीं आ रहा है किंतु इतना तो तय है कि सियासी दलों व उनके सत्ता प्रतिष्ठानों ने ही ऐसे भस्मासुर पैदा किये हैं जो उनके लिए भी असहजता की स्थिति

अजय रावत अजेय, संपादक

का सबब बन गए हैं। सरकारों को भी भविष्य में इस सबसे सबक लेना होगा और मीडिया घरानों से भी अपेक्षा है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष अपनी टीआरपी की ललक को त्याग दें।

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