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गांव की गिरती स्वीकार्यता और उत्तराखंड का खोता आत्मबोध, आलेख:रतन असवाल

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रतन असवाल (प्रबंध संपादक)

उत्तराखंड राज्य को बने पच्चीस वर्ष हो चुके हैं। संघर्ष, आंदोलन और बलिदान की भूमि से जन्मा यह प्रदेश केवल 13 जिलों के लिए अलग से प्रशासनिक इकाई बनाना नहीं था, बल्कि यहाँ के गांव, जंगल और एक सुंदर जनजीवन की रक्षा करने की पुकार थी। आज जब यह प्रदेश एक अनोखे पड़ाव पर खड़ा हैं, तो यह जरूरी है कि आत्मचिंतन किया जाय कि राज्य के लिए उस संघर्ष की आत्मा आज भी जीवित है? जिसके सपने तब हर उत्तराखंडी की आँखों में थे।
दुःखद हक़ीक़त यह है कि उत्तराखंड के गांव, जो इस राज्य की आत्मा माने जाते थे, आज सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिए गए है। गांव में रहना आज पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया है, जहां सुविधाओं का टोटा हो गया है और इसकी इन हालातों में करना बेमानी भी लगता है। यह मानसिकता सिर्फ आर्थिक संकट का परिणाम नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक सोच में आई उस विकृति का भी संकेत है, जो शहरी जीवन को श्रेष्ठ और ग्रामीण जीवन को हेय मानती है।
खेती, जो कभी जीवनदायिनी थी, अब बोझ मानी जाने लगी है। स्थानीय कृषि को बाजार से नहीं जोड़ा गया, न ही खेती में तकनीकी नवाचार हुए। नतीजा यह कि न लाभ है, न सम्मान। जो युवा गांव में रहकर खेती करना चाहते हैं, उन्हें भी ‘कुछ न करने वाला’ माना जाता है।
इस परिस्थिति को और विषम बनाते हैं वन संबंधी कानून, जिन्होंने जंगलों पर गांववासियों के पारंपरिक अधिकारों को लगभग पूरी तरह से ख़त्म कर दिया है या कमजोर कर दिया है। जलावन लकड़ी, चारा, या जड़ी-बूटी इन सभी पर अब कड़े प्रतिबंध हैं। गांववासियों को उनके अपने जंगलों में पराया ठहरा दिया गया है।
इन सबके बीच सबसे चिंताजनक पहलू है ग्रामीण युवाओं की सामाजिक अस्वीकार्यता। अब यह आम हो चला है कि गांव में रह रहे युवाओं से शहरी लड़कियां तो दूर की बात है गांव की लड़कियाँ तक शादी करने से इनकार कर देती हैं, केवल इसलिए कि वे गांव में रहते हैं, खेती करते हैं या कोई स्थानीय व्यवसाय करते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल व्यक्ति को ठेस पहुँचाती है, बल्कि एक पूरी जीवन पद्धति को अपमानित करती है।
यह सब अलग-अलग समस्याएं प्रतीत होती हैं, परंतु ये एक ही कुचक्र के हिस्से हैं। गांव, जंगल और जन को विकास के विमर्श से दूर करने का कुचक्र। जब सत्ता या समाज गांव को केवल “संकटग्रस्त इलाका” मानते हैं, न कि समाधान का केंद्र, तब ऐसी स्थिति पैदा होती है।
उत्तराखंड के भविष्य की बुनियाद तभी मजबूत हो सकती है जब गांव को विकास का केंद्र माना जाए, न कि बोझ। खेती को सम्मान और नवाचार से जोड़ा जाए। वन नीति में स्थानीय सहभागिता को बढ़ाया जाए और ग्रामीण युवाओं को उनके श्रम और जीवनशैली के लिए सम्मान दिया जाए। उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के ग्रमीण समाज की अब यह अनिवार्यता है।

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