दुःखद: नशे में डूबता बचपन- आलेख: केशव भट्ट

केशव भट्ट(वरिष्ठ पत्रकार)
उत्तराखंड के सुरम्य बागेश्वर जिले की घाटियों में जहां कभी पहाड़ों की सादगी और संस्कृति की सुगंध बहा करती थी, आज वहां एक और ही हवा बह रही है, नशे की. यहां की नई पीढ़ी धीरे-धीरे उस दलदल में धँसती जा रही है, जहाँ से निकल पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर बागेश्वर जिले की पहचान अब धीरे-धीरे बदल रही है. यह पहचान अब सिर्फ मंदिरों, ग्लेशियरों, घाटियों और लोकगीतों की नहीं रह गई है, बल्कि युवाओं में तेजी से फैलते नशे, अपराध और सामाजिक विघटन के बनने की भी है. उच्च हिमालयी गाँवों से शहरों की ओर बेहतर भविष्य की तलाश में आए परिवारों के बच्चे जब मोबाइल, दिखावे और जल्दी कमाई की चकाचौंध से टकराते हैं तो उनमें से कुछ भटक जाते हैं, और रास्ता पकड़ लेते हैं अपराध का. बागेश्वर में भी यह एक गंभीर सामाजिक संकट बनता जा रहा है. यहाँ का युवा वर्ग धीरे-धीरे एक ऐसी राह पर बढ़ रहा है, जहाँ से लौटना आसान नहीं.
कभी बागेश्वर जैसे इलाके में नशे के नाम पर पहले चरस और शराब जैसे पारंपरिक नशे की बातें होती थीं, अब स्मैक, टेबलेट्स, और केमिकल ड्रग्स तक की पहुँच हो गई है. यह सब इतनी खामोशी से होता है कि परिवारों को तब पता चलता है जब बच्चा उनके हाथों से निकल जाता है. 14 से 25 वर्ष की आयु सीमा के लड़के-लड़कियाँ सबसे अधिक प्रभावित हैं. नशे की यह लत केवल उनके स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि उनके भविष्य, सोच, संबंधों और समाज के प्रति जिम्मेदारी को भी निगलते चली जा रही है. नशे की गिरफ्त में आते युवा न केवल अपना स्वास्थ ख़त्म कर रहे हैं, बल्कि भविष्य के प्रति उनकी सोच भी कुंद होती जा रही है. पढ़ाई, करियर, संस्कार इन सभी से उनका ध्यान हटता जा रहा है. कई किशोर ऐसे हैं जो स्कूल से भागते हैं, चोरी-छिपे शराब या नशीली दवाओं का सेवन करते हैं और मोबाइल पर अश्लील सामग्री देखते हुए पकड़े जाते हैं. मोहल्लों में नाबालिग लड़कों के गुट रात में संदिग्ध गतिविधियों में देखे जा सकते हैं. ये बच्चे महज़ नशा नहीं करते, कई बार चोरी, झगड़े और यहाँ तक कि अश्लील हरकतों तक जा पहुँचते हैं.
अजीब विडंबना है कि गांवों से शहरों की ओर बेहतर भविष्य की तलाश में लाए गए बच्चे आज मोबाइल और नशे की दुनिया में खोते चले जा रहे हैं. वे यह समझ नहीं पाते कि उनके माता-पिता ने किन कठिनाइयों से गुजरकर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है. वैसे भी आज के वक्त में माता-पिता अपनी जिम्मेदारी केवल ज़रूरतें पूरी करने तक सीमित मानने लगे हैं. मोबाइल दे दिया, स्कूल भेज दिया, कपड़े खरीद दिए बस. काम पूरा हो गया. लेकिन बच्चों की भावनात्मक स्थिति, उनकी संगत, उनका सोशल मीडिया, उनकी गतिविधियाँ इन सब पर ध्यान देने का समय किसी के पास नहीं है. बड़े होते बच्चों को यदि मॉं बाप कभी टोकने की हिम्मत करते भी हैं तो बच्चे आत्मघाती कदम उठाने की धमकी दे उन्हें चुप करा देते हैं.
विद्यालयों में संसाधनों की कमी, काउंसलिंग का अभाव और सामाजिक संवाद की टूटती कड़ी, ये सभी कारण हैं जो इस संकट को और गहरा बना रहे हैं. गाँवों से शहरों में बच्चे लाए तो जाते हैं भविष्य संवारने के लिए, लेकिन वहां उनका कोई मार्गदर्शन नहीं होता. बच्चे खुद ही अपना रास्ता तलाशते हैं और भटकते चले जाते हैं.
नशा जब आदत बन जाता है और जेब में पैसे नहीं होते तो युवा अपराध की ओर बढ़ते हैं. छोटे-मोटे झगड़ों, मोबाइल चोरी, बाइक चोरी से शुरू होकर यह रास्ता ब्लैकमेलिंग, लूट, ड्रग्स की तस्करी तक पहुँच जाता है. अमीर घरों के बिगड़े बच्चे जब महंगे फोन, कपड़े, महंगी गाडियों में दिखते हैं, तो गरीब घरों के बच्चे भी उन्हें देख उसी दुनिया का हिस्सा बनना चाहते हैं. लेकिन संसाधन नहीं होने पर वे अपराध को शॉर्टकट मानते हैं.
सिर्फ लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी इस आपराधिक गिरावट में पीछे नहीं हैं. कई मामलों में नाबालिग लड़कियाँ सोशल मीडिया पर जानबूझकर अश्लील सामग्री साझा करके ब्लैकमेलिंग का हिस्सा बनती देखी गई हैं. यह संवेदनशीलता के मरते जाने का प्रमाण है. बागेश्वर जिले में कई नाबालिग ऐसे मामलों में पकड़े गए हैं जो अश्लील हरकतों या नशे के सेवन के दौरान अपराध में लिप्त पाए गए. इसके बावजूद उनके अभिभावक कोई ठोस कदम नहीं उठाते, न उन्हें समझाते हैं, न समय देते हैं.
युवा सिर्फ मोबाइल या शॉर्ट वीडियो के जरिए ही नहीं भटक रहे बल्कि स्थानीय राजनीति की चमक-दमक से भी प्रभावित हो रहे हैं. कई युवा छोटे-मोटे नेताओं के साथ फोटो खिंचवाकर, सोशल मीडिया पर को लगातार जागरूक किया जा रहा है. जिले में नशे के खिलाफ एक सतर्क नेटवर्क बनाया गया है, जिससे हर गतिविधि पर कड़ी नजर रखी जाती है. पुलिस की माने तो, नशा अब एक घरेलू समस्या नहीं रही, यह एक व्यवस्थित नेटवर्क का हिस्सा बन चुकी है, जिसमें ‘बिकने वाला’ और ‘बेचने वाला’ दोनों ही हमारे बच्चे हैं. पुलिस अधीक्षक चन्द्रशेखर घोड़के मानते हैं कि नशा और अपराध की ये चेन तभी टूटेगी जब बच्चों को घर और स्कूल दोनों में सहारा मिलेगा.
अभी भी समय है कि समाज, शिक्षक, पंचायतें और स्वयंसेवी संस्थाएँ इस संकट को व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक मानें. यदि एक मोहल्ले में एक बच्चा भटकता है, तो उसकी गूंज पूरे जिले में सुनाई देती है. हर व्यक्ति को यह सोचने की जरूरत है, क्या हम अपने अगल-बगल के बच्चों को जानते हैं? क्या हमें पता है कि वह किसके साथ घूमता है? क्या हम उनसे बात करते हैं, या बस आदेश देते हैं?
बागेश्वर की वादियाँ चुप हैं, पर उनकी चुप्पी बहुत कुछ कहती है. वो माँ जो हर रात बेटे का इंतज़ार करती है, वो पिता जो अपने आंसू छुपाकर सब्र का घूँट पीता है, वो शिक्षक जो खाली बेंचों को देखता है, सभी को अब साथ आना होगा. हमें बच्चों को समझना होगा, उन्हें वक्त देना होगा. नशे के खिलाफ लड़ाई सिर्फ पुलिस की नहीं, हर परिवार, हर शिक्षक, हर नागरिक की है. अब भी समय है, बच्चों का हाथ पकड़िए, डांटिए नहीं, समझाइए. या फिर सिस्टम को ही दोषारोपण करते रहोगे..??