March 15, 2025
#संस्कृति

प्रकृति के विन्यास व उल्लास की अनुभूति देता फूलदेई पर्व: आलेख अद्वैत बहुगुणा

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“अद्वेत बहुगुणा” वरिष्ठ पत्रकार

आज के दिन से पहाड़ों में लोकगीतों के गायन का अंदा

अद्वैत बहुगुणा वरिष्ठ पत्रकार

ज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे पहाड में आज चैत्र प्रतिपदा के दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन शुरु होता है।

बाजगी, औजी या ढोली इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।

फूलदेई का लोकपर्व बसन्त की बौर और प्रकृति के उल्लास के बीच हमें प्रकृति के विन्यास को समझने की ओर प्रेरित करता है ।

उत्तराखण्ड के प्राकृत समाज का ये पर्व बच्चों से इसी लिये जोड़ा गया कि बच्चे अपनी प्रकृति को देखें समझें और इस धरती के रंगों और उससे मनुष्य के सहचर्य को समझें ।

“देहल्यां द्वा विगेपे द्वार पूजार्थ दर्त्तः पुष्पैयाँ गणना तया । रग्वापदेपु पुष्पाणि दत्त्वत्यर्थः ।” मेघदूत ।। 84 ।।

फूलदेई के प्रतीक पुष्प फ्योंली की कहानी जिसमें फ्योंली को एक जंगल की राजकुमारी का मानवीकरण करके समझाया गया है कि किस प्रकार एक महलों का राजकुमार फ्योंली को अपने महलों में ले जाता है और वह महलों में अपना रंग खो देती है , अपनी आभा खो देती है और अंततः मर जाती है । फ्योंली की इच्छा के अनुरूप राजकुमार उसे वहीं पहाड के जंगल में चोटी पर दफना आता है और फिर उस जगह ये पीले खूबसूरत फूल खिल आते हैं जिन्हें फ्योंली नाम से ही जाना जाता है ।

ये कहानी हमें ये बताती है कि प्रकृति के अपने नियम हैं आदमी प्रकृति को अपनी मर्जी से नहीं ढाल सकता वरन आदमी को प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर चलना होता है । बस इतना ही सार है फ्योंली की कथा का ।

प्रकृति का संरक्षण और उसके सीमित उपभोग की कहानी है फ्योली, प्रकृति के सानिध्य में बच्चों को जीवन जीने की प्राकृत शिक्षा का त्योहार है फ्योंली । हमारे बुजुर्ग प्रकृति के इतने नजदीक थे कि वे प्रकृति के हर भाव को समझते और उस अनुसार अपना जीवन जीते थे । एैसा ही एक वाकया मैं और आपको आज साझा कर रहा हूं ।

उत्तराखण्ड की नैसर्गिक वादियों में एक घाटी है उर्गम । उर्गम घाटी अपनी जैव विविधता के लिये जानी जाती है । पहली बार इस घाटी को देखने वाला बस देखते ही रह जाता है । यहीं भगवान विष्णु का एक पौराणिक मंदिर है “वंशी नारायण” जिसे स्थानीय भाषा में “फ्योंली नारायण” कहा जाता है । इस मंदिर के आप पास बहुत किस्म के फूल होते हैं जिनकी शोभा का वर्णन करना सहज होता ही नहीं । बस उन्हें देख कर अभिभूत ही हुआ जा सकता है ।

यहां पर भगवान के चरणों में फूल चढ़ाने के लिये फूलों को हाथ से तोडने की सख्त मनाही है । आपको फूल अपने दांत से काट कर तोड़ने होते है । और फिर उसे चढ़ाया जाता है । नियम बनाने वालों को पता है कि आपको हाथ से फूल तोडने की इजाजत दे कर ये घाटी दिन भर में ही वीरान हो जायेगी ।

इस धरती के किस्से ही न्यारे हैं किन्तु हम नहीं समझ पा रहे है तो ये हमारी अपनी बदकिस्मती है । उसमें कोई क्या करें ।

प्रकृति के रंगों को देखने समझने और भोगने के सामंजस्य को प्रेरित यह फूलदेई का त्योहार आपको मंगलमय हो ! शुभ हो !

सत्यम् शिवम् सुन्दरम् !!!

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