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दून में बराबर संघर्ष, कोटद्वार में थोड़ा कम्फ़र्टेबल तो ऋषिकेश में जूझती भाजपा

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देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार से लौटकर ..अजय रावत अजेय

गढ़वाल क्षेत्र के तीन बड़े व अहम नगर निगमों में प्रदेश में सत्तासीन भाजपा पसीने बहाने को मजबूर दिखाई दे रही है। राजधानी दून में भाजपा के अंदर अपेक्षित जोश व उत्साह नजर नहीं आ रहा है तो ऋषिकेश की जंग एक नए मुकाम की ओर बढ़ती जा रही है। हालांकि कोटद्वार में भाजपा बाहरी तौर पर कुछ सहज स्थिति में नजर आ रही है लेकिन विकास के स्थानीय मुद्दों पर नाराजगी का अंडर करंट यहां भी भाजपा को अचंभित कर सकता है।
प्रदेश के गढ़वाल क्षेत्र के 3 महत्वपूर्ण नगर निगमों की कहानी मतदान से 36 घण्टे पूर्व जुदा जुदा नजर आती है। प्रदेश के सबसे बड़े नगर निगम देहरादून में पूर्व में भी भाजपा काबिज रही है। इस मर्तबा भाजपा के साथ कांग्रेस द्वारा भी छात्र राजनीति से निकले दो युवा चेहरों पर भरोसा जताया गया है। राज्य में भाजपा के सत्तासीन होने के चलते यह धारणा स्वाभाविक है कि देहरादून में भाजपा सहज स्थिति में होनी चाहिए। कांग्रेस जिस तरह से लगातार चुनावी रणों में मुंह की खाती जा रही है उससे भाजपा को स्वाभाविक तौर पर मनोवैज्ञानिक बढ़त व उत्साह मिलना लाजिमी है। किंतु देहरादून नगर निगम में भाजपा के चुनावी अभियान में आत्मविश्वास तो अवश्य झलकता नजर आ रहा है किंतु सत्ताधारी दल जैसा जोश व उत्साह उस लेबल का नहीं नजर आ रहा जो पूर्व के चुनावों में देखा जाता रहा है। यहां तक चर्चा है कि सतही तौर पर एकजुट दिखाई दे रही भाजपा के अंदर नगर निगम चुनाव में अपेक्षित एकजुटता नहीं है, कुछ छत्रपों के निष्क्रिय होने की भी चर्चा है। उधर दूसरी ओर तमाम झटकों के बाद भी यहां कांग्रेस उम्मीद से बेहतर बैटिंग करती नजर आ रही है। पार्टी कैंडिडेट वीरेंद्र पोखरियाल का चुनावी अभियान कहीं से भी सत्ताधारी भाजपा से कमतर नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर देहरादून नगर निगम की जंग में दोनों पलड़ों में वजन फिलहाल बराबर नजर आ रहा है। भाजपा अपने कैडर व महिला वोट को छिटकने से बचाने में विफल हुई तो नतीजा अप्रत्याशित भी हो सकता है।
कोटद्वार की बात करें तो यहां प्रदेश सरकार व भाजपा के प्रति नाराजगी अवश्य नजर आती है लेकिन पार्टी प्रत्याशी शैलेंद्र सिंह रावत की मिलनसार छवि व जनता से सतत संवाद की उनकी खूबी इस नाराजगी को कम करती दिखाई दे रही है। वहीं पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी व निवर्तमान मेयर हेमलता नेगी की तथाकथित उदासीनता भाजपा के लिए बोनस पॉइंट की तरह साबित हो रही है। हालांकि कांग्रेस प्रत्याशी रंजना रावत की एक संघर्षशील नेत्री की छवि रही है। कोटद्वार के मुद्दों को लेकर वह हमेशा मुखर रही हैं, किंतु उन्हें पार्टी के बड़े छत्रपों व संघटन से अपेक्षित सहयोग मिलता नहीं दिखाई दे रहा है, जिसका फायदा सीधे तौर पर भाजपा प्रत्याशी को मिल सकता है। कुल मिलाकर यहां भाजपा थोड़ा कम्फ़र्टेबल तो नजर आ रही है किंतु बड़ी आबादी वाले भाभर क्षेत्र को पूरी तरह से प्रभावित करने वाले मालिनी पुल को लेकर उपजी नाराजगी तराजू के पलड़े को किसी भी तरफ झुका सकती है।
सबसे अहम व रोचक मुकाबला ऋषिकेश के मैदान में होने जा रहा है। भाजपा की अंदरूनी सियासत में चलने वाले शह व मात के खेल की परिणित यह हुई कि मेयर के पद को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया। उस पर तुर्रा यह कि यहां न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस द्वारा भी पहाड़ी दावेदारों को दरकिनार कर गैर उत्तराखंडी मूल या सरनेम वाले नेताओं को मैदान में उतार दिया गया। पहाड़ी मूल के सर्वाधिक मतदाताओं वाले इस निगम में दोनों राष्ट्रीय दलों द्वारा लिए गए इस जोखिम भरे निर्णय के बाद मास्टर दिनेश कुमार नामक पहाड़ी अनुसूचित वर्ग के नेता द्वारा मैदान-ए-जंग में उतरने के बाद जंग का रुख एकाएक एक अलग दिशा की तरफ मुड़ गया। सतही तौर पर अब ऋषिकेश की जंग दलगत राजनीति से हटकर कहीं न कहीं क्षेत्रवाद की ओर रुख करती नजर आ रही है। लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी की प्रस्तुतियों के बाद ऋषिकेश मेयर का चुनाव पहाड़ी स्वाभिमान का पूरक बनने लगा। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगा कि ऋषिकेश की रणभूमि में सतही तौर पर उड़ रही हवा भाजपा व कांग्रेस के लंगरों को उड़ा लेगी, किंतु यह साफ है कि मास्टर दिनेश पूरी शिद्दत व मजबूती के साथ गंगा तट के रणक्षेत्र में एक जंगजू की तरह भिड़ रहे हैं। हवा के रुख के मुताबिक यदि बैलेट पेपर पर ठप्पे पड़ जाएं तो निश्चित है कि हिमालय से एक और गंगा निकले या न निकले लेकिन ऋषिकेश से गंगा की एक ऐसी धार अवश्य निकलेगी जो भाजपा नेतृत्व को उत्तराखंड के संदर्भ में अपनी रणनीति की समीक्षा करने को मजबूर कर देगी।

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