पौड़ी: चहुं ओर त्योहारों के उल्लास का शोर, लेकिन पौड़ी में सन्नाटा
पौड़ी॥
त्यौहारी सीजन में भी पौड़ी से गायब है भीड़- भाड़ खूब भीड़-भाड़ और चहल-पंहल का साक्षी होकर सरसब्ज बना रहता था कभी पौड़ी। आज का यह दौर भी है जब त्यौहार के दिनों में भी पौडी वीरान पड़ा, सड़कें सूनी है, दुकानदार ग्राहकों के इन्तजार में हैं और पौड़ी की रौनक जैसे कहीं गायब हो गयी है।
आखिर किस की नजर लगी है पौड़ी को जो उसे आज यह दिन देखने को मिल रहे हैं। कौन इसके लिए दोषी है ? सरकार को दोष दें या राजनीति को, प्रशासन को कोसें या जनप्रतिनिधियोें को या फिर यहाँ के रहवासियों को ? कुछ तो हुआ है जो पौड़ी आज रसातल में है और इसके कद्रदान भी इसकी खुबसूरती का बखान करते हुए हाथ-पैर मलते रह गये हैं।
पौड़ी के हालातों के लिए कौन जिम्मेदार है इस पर चर्चा करने से पहले बतातें चलें कि आज दशहरा है। देश व प्रदेश के तमाम शहरों में नवरात्रों से लेकर दशहरे तक खूब चहल-पहल व रौनक देखी जा रही है। पौड़ी के मुकाबले श्रीनगर और कोटद्वार को ही लें तो वहाँ की शानो-सौकत और त्यौहार के दिनों की रौनक देखते ही बनती है। आखिर ये दोनों शहर भी तो इसी जिले में हैं, तो आखिर क्या हो गया कि पौड़ी इन्हीें के मुकाबले त्यौहारी सीजन में भी उजाड़ सा दिख रहा है। आज दोपहर बाजार घूमने पर तो ऐसा ही लगता है जैसे कोई उज्याड़ू गोर आया हो और पौड़ी की रौनक को चट कर गया हो। हाँ जानवरों का जिक्र आने पर इतना जरूर है कि पौड़ी की वीरान सड़कों पर जहाँ-तहाँ जानवर जरूर दिख रहे हैं जो दुकानदारों और ग्राहकों के लिए भी परेशानी का सबब बने है।
पौड़ी के यह हाल कैसे हुए ? आखिर अचानक तो हुए नहीं होंगे। धीरे-धीरे ही हुए होंगे। उत्तराखण्ड राज्य गठन तक तो फिर भी पौड़ी मे खूब भीड़-भाड़ दिखायी देती थी लेकिन उसके बाद डाउनफाल होना शुरू हुआ। तब तक मण्डलीय कार्यालय भी यहीं थे। कर्मचारी वर्ग भी यहीं रहता था। आस-पास के विद्यालयोे व विभागों में काम करने वाले भी पौड़ी में डेरा डाले रहते थे। गाँवों से तमाम लोग हर तरह के सामान के लिए पौड़ी आते थे। मण्डलीय कार्यालयों, कचहरी और अदालतों में बड़ी संख्या में लोग आते थे। ग्रामीण क्षेत्रों बैंक और अन्य सुविधाएं कम थी। परिवहन सुविधा कम थी। निजी वाहन सीमित थे। इसलिए लोग पौड़ी में ठहरते थे। लेकिन अब तमाम सुविधाओं का विकेन्द्रीकरण हो गया। सड़कें गाँव-गाँव में पहुच गयी। दुकाने हर कस्बे व गाँवों में खुल गयी। रही सही कसर ऑन लाइन खरीददारी ने पूरी कर दी है। प्रतिदिन लाखों रु0 का ऑन लाइन ट्रांजक्शन केवल पौड़ी शहर से ही हो रहा है। जब घर बैठे के सामान घर में ही मिल जा रहा तो दुकानों का रूख कौन करे। पौड़ी शहर में एक जमाने में प्रसिद्ध बड़थ्वाल रेडियोज के प्रोपराइटर अनिल बड़थ्वाल का कहना है कि त्यौहार के दिन भी प्रायः ग्राहकों का इन्तजार करना पड़ता है। कई बार जब त्यौहार के दिन देहरादून में होता हूँ तो वहाँ ब्यापारिक मित्र कहते हैं कि आज के दिन तो उन्हें पौड़ी दुकान में होना चाहिए। तब समस्या यह होती है कि देहरादून की चहल-पहल को देखते हुए उन्हें कैसे समझाया जाय कि पौड़ी के हालात कैसे हैं।
पलायन तो बड़ी समस्या रही है। पौड़ी में निवास करने वाले अस्सी फीसदी लोग ऐसे हैं जिनका एक कदम पौड़ी में है और दूसरा देहरादून। पौड़ी के अधिकांश मकान मालिकों का देहरादून में भी अपना आशियाना है। सर्विस क्लास कर्मचारी-शिक्षक, अधिकारी वर्ग की बाकी दिनों मजबूरी हो सकती है लेकिन निजी वाहन होने के कारण अवकाश के दिन तो वे देहरादून में ही आनन्द लेते हैं। ऐसे तमाम लोग तमाम तरह की खरीदारी भी देहरादून से ही करके ले आते हैं तब पौड़ी के बाजार की रौनक को तो ग्रहण लगना ही है। अब तो ऐसा लगता है और यह हकीकत भी है कि पौड़ी के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों ने भी देहरादून को ही अपना ठिकाना बना दिया है। वैसे भी जब सब्बी धाणी देहरादून तो लोग ठीक ही कह रहे हैं कि आधा गढ़वाल देहरादून बस गया है और बसता जा रहा है।
मगर ये कारण तो परिस्थितिजन्य हैं। असली कारण तो सरकार और प्रशासकीय नीतियाँ तथा पौड़ी के नागरिकों की उदासीनता है। पौड़ी में सुविधा नहीं मिली तो देहरादून या अन्यत्र भागने की प्रवृत्ति है। कुछ भौगोलिक कारण भी हो सकते हैं लेकिन नीतियाँ सही बनती तो पौड़ी की रौनक को बरकरार रखा जा सकता था। आखिर कुमाऊँ में अल्मोड़ा और पिथौरागढ़़ भी तो हैं जो आज भी अपनी रौनक को बनाये हैं तब पौड़ी को क्या हुआ। तो क्या पौड़ी की खुशियों पर अन्य शहरों ने ग्रहण लगाया ? क्या हम श्रीनगर, कोटद्वार जैसे फलते-फूलते शहरों को दोष दें। नहीं, दोष यहाँ के नीति नियन्ताओं और यहाँ के रहवासियों का ही है जिन्होंने निजी स्वार्थ के आगे जनसरोकारों और सामूहिक हितों को पीछे छोड़ दिया।