#उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के लिये एक समग्र भाषा अनिवार्य: आलेख-सुरेश नौटियाल

Share Now

सुरेश नौटियाल
गढ़वाली भाषा के साहित्यकार रमाकांत बेंजवाल की इस बात से हम सहमत हैं कि भाषा विकास की एक निश्चित प्रक्रिया होती है, और इस प्रक्रिया में किसी बोली के उपभाषा, भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा से लेकर विश्वभाषा तक बनने की चाह होती है। बेंजवाल के अनुसार गढ़वाली भाषा ने अपने चार चरण पूरे कर लिये हैं। पांचवें चरण के लिए गढ़वाली व्याकरण एवं शब्दकोशों के प्रकाशन हो जाने से गढ़वाली के उच्चारण भेद पर चर्चा होने लगी है। वह यह भी कहते हैं कि भाषा कोई भी संस्था या व्यक्ति नहीं बना सकता है, हां परिष्कृत जरूर कर सकता है। जैसे हिंदी खड़ी बोली भी परिष्कृत कर बनी है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए उच्चारण भेद और गढ़वाली व्याकरण पर श्रीनगर गढ़वाल में चौथी कार्यशाला 5-6 अक्टूबर 2024 को आयोजित की गई।उदाहरण के लिए यह कहना चाहेंगे कि गढ़वाली नाटकों में हम श्रीनगर क्षेत्र की गढ़वाली भाषा का उपयोग करते हैं लेकिन कलाकार जिस क्षेत्र से आते हैं, वहीं की भाषा बोलते हैं। कहने का तात्पर्य है कि गढ़वाली भाषा का मानकीकरण आवश्यक है। विभिन्न क्षेत्रों में एक ही वस्तु के लिए जो भिन्न-भिन्न नाम उपयोग में लाये जाते हैं, उन्हें पर्यायवाची शब्दों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। खड़ी बोली और अन्य बोलियों को मिलाकर हिंदी भाषा का निर्माण हो सकता है तो गढ़वाली भाषा का मानकीकरण कर उसका व्याकरण भी विशेषज्ञों द्वारा सृजित किया जा सकता है।
पर, इस लेख के माध्यम से हम कुछ और कहना चाहते हैं।
आज जिस तरह से वैश्वीकरण और बाजारवाद की ताकतें मजबूत हो रही हैं, उसमें उप-भाषाओं और वंचित समाजों के लिए जगह कम होती जा रही है। दूसरी ओर जो भाषाएं व्यापार को बढ़ाने में ज्यादा इस्तेमाल हो रही हैं उनका वर्चस्व बराबर बढ़ता जा रहा है। उदाहरण के लिये अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी तथा भारत के एक बड़े हिस्से में हिंदी के व्यापक व्यापारिक उपयोग ने क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के लिये स्पेस काफी कम कर दिया है।
जो लोग उत्तराखंड की एक समग्र नेटिव भाषा की संभावना को नहीं देखते उन्हें बताते चलें कि हिंदी भी गढी गयी भाषा है। यह देश के किसी भी गांव की भाषा नहीं है। उत्तर भारत में अलग-अलग पृष्ठभूमियों के लोग व्यापार या राजशाही के काम के चलते ज्यादा मिलने लगे तो हिंदवी या हिंदुस्तानी के रूप में इसका विकास हुआ। आज जो भाषा हम उत्तर भारत से लेकर पाकिस्तान तक बोलते हैं, उसे कोई हिंदी, कोई हिंदुस्तानी और कोई उर्दू बोलता है! नाम जो भी हो, इसका काम एक ही है। कुल मिलाकर आज यह इसलिये जीवित है क्योंकि यह बाज़ार और आपसी बोलचाल की भाषा है।
कहने का तात्पर्य यह कि यदि गढ़ी गयी भाषा हिंदी लोकप्रिय बन सकती है तो भावी समग्र उत्तराखंडी नेटिव भाषा भी विकसित होकर लोकप्रिय बन सकती है। आज आवश्यकता है कि पर्वतीय उत्तराखंड की सभी वर्तमान भाषाओं का विलय करके नयी नेटिव भाषा बने और अपने व्याकरण के अनुसार विकसित हो। स्थानीय लोकजीवन और परम्पराओं को बचाने के लिये आज एकमात्र नेटिव भाषा का होना आवश्यक है।
इस विषय पर चर्चा करने से पहले उत्तराखंड लोकभाषा साहित्य मंच दिल्ली के पदाधिकारी और गढ़वाली भाषा के कवि दिनेश ध्यानी के एक पुराने वक्तव्य तथा उनके वक्तव्य पर उत्तराखंड की एक समग्र भाषा के प्रबल समर्थक डॉ। बिहारीलाल जलंधरी की प्रतिक्रिया के आलोक में यह कहना आवश्यक है कि उत्तराखंड की एक समग्र भाषा होना अनिवार्य है।
दिनेश ध्यानी का मानना है कि गढ़वाली-कुमाऊंनी और जौनसारी भाषाओं का अपना अलग-अलग अस्तित्व है। इनका अपना-अपना इतिहास और साहित्य है। इसलिये इन्हें स्वतंत्र भाषाओं के रूप में ही विकसित किया जाना चाहिये और सरकार भी इन्हें अलग-अलग भाषाओं के रूप में ही मान्यता दे। अर्थात वह इस विचार से सहमत नहीं लगते कि इन तीनों भाषाओं को मिलाकर एक नयी भाषा बनायी जाए। ध्यानी का तर्क है कि ऐसे समय में ये बातें करना ठीक नहीं जब ये तीनों भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हों। उनका कहना है कि इन भाषाओं को बोलने, पढ़ने और लिखने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। वह अपने तर्क को आगे बढाते हुये कहते हैं कि आज की पीढ़ी का एक बडा वर्ग गढ़वाली, कुमांऊनी और जौनसारी भाषाएं यदि समझ भी पा रहा है तो तो बोल नहीं पा रहा है। ऐसे में इन भाषाओं का विलय कर एक समग्र भाषा बनाने की बात कहां तक उचित है? पत्रकार चारु तिवारी का भी सव्वल रहता है कि उत्तराखंड के लिए यदि एक नयी भाषा बना दी जाती है तो पहाड़ की दुधबोलियों का क्या होगा!
दूसरी ओर, डॉ. बिहारीलाल जलंधरी यह बात तो स्वीकार करते हैं कि किसी भी भाषा को न तो खेती में उपजाया जा सकता है और न ही किसी प्रयोगशाला में बनाया जा सकता है। पर, साथ ही कहते हैं कि धरती पर कुछ भी स्थाई और स्थिर नहीं है, लिहाजा भाषाएं भी स्थाई नहीं हैं। वे काल-परिस्थिति के अनुरूप ढलती और बदलती रहती हैं। और यदि भाषाओं में आने वाले स्वाभाविक परिवर्तनों को यदि सकारात्मक गति प्रदान की जाए तो वे परिणाम आ सकते हैं, जो हम चाहते हैं, अर्थात उत्तराखंड की पर्वतीय भाषाओं को मिलाकर एक समग्र उत्तराखंडी भाषा विकसित की जा सकती है। जलंधरी का यह भी कहना है कि विकास उसी भाषा का होता है जिसे आपसी संपर्क के रूप में प्रयोग किया जाता है। अर्थात, यदि समान धाराओं की भाषाओं में स्वतंत्र कार्य करने वाले भाषाविद अपनी रचनाओं या कृतियों में दूसरी समान भाषाओं को सम्मानजनक स्थान देते हुए उनके शब्दों और वाक्य-विन्यासों का प्रयोग करें तो निस्संदेह धीरे-धीरे ये भाषाएं स्वाभाविक रूप में एकरूप हो सकती हैं।
डॉ. जलंधरी कहते हैं कि अपनी भाषा को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले और दूसरी भाषाओं को सम्मान न देने वाले भाषा परिवर्तनशीलता के इस विचार को अपनी भाषा के लिए ख़तरा समझकर विरोध कर रहे हैं। अपनी बात के समर्थन में वह “उत्तराखंड भाषा परिषद्” का गठन किए जाने की मांग भी करते हैं।
इस विषय का एक और पक्ष सामने आया है। क्षेत्रीय उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी का मानना है कि संस्कृति के अतिरिक्त भाषा और साहित्य ही ऐसी विधाएं हैं जो किसी भी समाज को जीवंत बनाये रखती हैं। इनके बिना समाज का कोई महत्व नहीं। अपनी भाषा और संस्कृति व्यक्ति विशेष को नयी ऊर्जा देती हैं। ये सामाजिक जुड़ाव को भी प्रगाढ बनाती हैं। पूरे राज्य की अपनी एक भाषा हो तो ये सब तत्व निश्चितरूप से और प्रगाढ़ होंगे।
अब थोडा विश्लेषण करें।
उपरोक्त विचारों में जहां पहला विचार थोड़ा कठोर रास्ता लिये हुये है, वहीं दूसरे और तीसरे विचार में लोचनीयता है। कुल मिलाकर, इन विचारों ने उत्तराखंड के विभिन्न भाषाई समूहों की चिंताओं पर नये सिरे से सोचने और उन पर नये परिप्रेक्ष्य में विचार करने का अवसर दिया है। भाषा-संस्कृति और विशेषकर भाषा को अकादमिक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता भी जान पड़ती है।
हमारा भी मानना है कि भाषा, संस्कृति और समाज का विकास परिवेश के अनुसार होता है। किसी स्थान विशेष का भूगोल भी इनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब मनुष्य ने धीरे-धीरे विकास किया होगा तब उसने प्रकृति की ध्वनियों, पक्षियों के कलरव, हिंसक पशुओं की दहाड़ों और नदी के कल-कल करते वेग से निकली ध्वनियों से धीरे-धीरे शब्दों, वाक्यों और अंततः संपूर्ण भाषा का विकास किया होगा। इस प्रक्रिया में निश्चय ही लाखों नहीं तो हजारों साल लग गये होंगे। इस प्रकार, जिस तरह की भाषायें हजारों-हजारों साल पहले थीं, वे आज नहीं हैं, पर आज की भाषाएं पुरानी भाषाओं को आधार बनाकर ही खड़ी हैं। इसी तरह साहित्य, समाज और संस्कृति भी देश-काल-परिस्थिति-वातावरण के हिसाब से अंगड़ाई लेते रहे हैं और अपना स्वरूप भी बदलते हैं, पर उनका आधार भी मानव का संचित ज्ञान ही है।
अर्थात, शताब्दियों से संचित लोक-व्यवहार, परस्परता, भौगोलिक और जलवायु की परिस्थितियों, वातावरण, ज्ञान और अध्यात्म को सम्पूर्ण जीवनदर्शन के रूप में प्रस्तुत करती है भाषा। भाषा की विशिष्ट सूक्ष्मतायें होती हैं जिनका न तो किसी अन्य भाषा में अनुवाद किया जा सकता है और न ही उसे किसी और रूप में अक्षरश: प्रस्तुत किया जा सकता है। इस उक्ति के अनुसार उत्तराखंड की पर्वतीय भाषाओं का अपना-अपना अस्तित्व बना रहना चाहिये; पर हमारा तर्क है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों का संचित लोक-व्यवहार, परस्परता, भौगोलिक और जलवायु की परिस्थितियां, वातावरण, ज्ञान और अध्यात्म क्या समग्र रूप में समान नहीं हैं?
हम उत्तराखंडी इसलिए कहाते हैं क्योंकि हमारी विशिष्ट भाषाएं, संस्कृति और समाज हैं। ये तत्व हमें आपस में प्रगाढता से जोड़ते हैं। और यदि हम आपस में हिंदी का सहारा न लेकर अपनी एक समग्र नेटिव भाषा में संवाद कर रहे होते, तब आपसी प्रगाढता और तीव्र होती।
एक अध्ययन के अनुसार दुनिया की 600 से ज्यादा भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। पर्वतीय उत्तराखंड की भाषाएं इनमें शामिल हैं। यूनेस्को के अनुसार दुनिया में 7 अधिक नेटिव भाषायें तो अगले दशक के भीतर लुप्त हो जाएंगी और वर्ष 2050 तक केवल 20 नेटिव भाषाएं बोली जाएंगी। कुल मिलाकर, हमारे उत्तराखंड की नेटिव भाषायें आज बाजारवाद की भाषाओं से खतरा महसूस कर रही हैं। भारत के विभिन्न इलाकों की भाषाओं का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि अनेक बोलियों या उप-भाषाओं को हिंदी खा गयी है और अनेक भाषाओं को अंग्रेज़ी ने दोयम दरज़े का बना दिया है।
यह कुल मिलाकर किसी भी संस्कृति और समाज के लिए खतरे की घंटियां हैं। इनका मुकाबला किस तरह से किया जाए, इस पर हम सबको सोचने की जरूरत है। गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, शौका, इत्यादि भाषाओं को हिंदी निगल रही है। यह इसलिये कि बाजार की भाषा हिंदी है। यहां डॉ। जलंधरी का तर्क सही है कि वही भाषा जीवित रहती है जो अधिक उपयोग में रहती है। उत्तराखंड की वर्तमान भाषाओं को न तो राजकीय संरक्षण प्राप्त है और न ही वे सम्पर्क भाषाओं के रूप में बोली जाती हैं। कुल मिलाकर, इनका भविष्य कम ही दिखाई देता है। यहां हमारा विवेचन है कि उत्तराखंड की एक समग्र नेटिव भाषा ही हिंदी के प्रभाव को रोक सकती है। यहां हिंदी का विरोध नहीं है। बस इतना सा आग्रह है कि पूरे उत्तराखंड में एक ही नेटिव भाषा हो और राज्य के बाहर हिंदी और अन्य भाषाओं का जो प्रचलन है, वह बना रहे।
उपरोक्त पृष्ठभूमि में सरकार को चाहिये कि राज्य की पर्वतीय भाषाओं के संरक्षण के लिये संवैधानिक अधिकारप्राप्त अकादमी बनाये और इसके अंतर्गत उत्तराखंड के पर्वतीय भाषाविदों और विशेषज्ञों की समिति को समग्र उत्तराखंडी भाषा की लिपि, व्याकरण, वाक्य विन्यास और शब्दकोश बनाने का कार्य सौंपे और सुनिश्चित करे कि यह कार्य समयबद्ध ढंग से पूरा हो। पांच-दस वर्ष में यह काम पूरा हो सकता है। इतना समय इसलिये चाहिये क्योंकि समिति अपने भीतर विभिन्न उत्तराखंडी पर्वतीय भाषाओं की उप-समितियां बनायेगी जो समिति को भाषा विशेष की शब्दावली समग्र उत्तराखंडी भाषा में सम्मिलित करने के लिये देगी। इस काम में इससे ज्यादा समय नहीं लगेगा क्योंकि भाषाशास्त्र के अनुसार गढवाली-कुमाऊंनी-जौनसारी भाषाओं का एक ही आधार है। शौका और भोटिया भाषाओं को साथ लाना भी कठिन न होगा।
जनता इस नयी नेटिव और राज्य-स्तर पर राजकीय भाषा का अधिकतम प्रयोग करेगी, स्कूलों में इसे पढाया और बोला जायेगा और इस नयी भाषा में थिएटर हो और इसमें फिल्मों का निर्माण हो तो कोई वजह नहीं कि यह लोकप्रिय न हो! इस प्रकार पूरे उत्तराखंड के स्तर पर यदि एक ही नेटिव भाषा का विकास होगा तो उत्तरकाशी के व्यक्ति को मुनस्यारी के व्यक्ति के साथ हिंदी में बात करने की मज़बूरी नहीं रह जायेगी और दोनों अपने को एक समग्र संस्कृति और भाषा के वाहक के रूप में देखेंगे। इस कर्म से अंतत: एकजुट उत्तराखंड का विचार और संपुष्ट होगा।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *