आलेख-सुरेश नौटियाल: सांस्कृतिक पतन की ओर बढ़ता प्यारा पहाड़..!
सुरेश नौटियाल
यूं तो जब से होश संभाला और पांचवीं कक्षा पास करने के बाद गढ़वाल में पौड़ी नगर के पास के एक छोटे से गांव उणचिर से पलायन किया, तब से ही उत्तराखंडी परिवेश में आ रहे व्यापक परिवर्तनों को महसूस करता आ रहा हूं। लेकिन, पिछले कुछ साल में बहुत ही क्रूर परिवर्तन हुए हैं.
बहुत ही छोटा किंतु सुंदर सा गांव है मेरा। आज मुश्किल से दस मवासे गांव में और ग्यारह मवासे गांव के ऊपर एक किलोमीटर पर राज्य राजमार्ग-31 के आस-पास रहते हैं. दोनों जगह की कुल जनसंख्या 40 से भी कम. डेढ़-दो सौ साल पहले पास के ही कपफलना गांव से तीन भाई उणचिर आये थे। इनमें मेरे परदादा सबसे बड़े थे। एक भाई की कोई संतान नहीं हुई। बाद में गांव की जमीनें चाचा-ताउओं के छह भाइयों और एक बहन में बंट गई। मेरे दादाजी को सातवां हिस्सा मिला और शायद वह उसमें ही खुश रहे होंगे, जबकि नियमानुसार आधा गांव उनका होना चाहिए था क्योंकि कुछ पीढ़ियों तक मेरे दादाओं का एक ही बेटा होता रहा। बहरहाल, कहने का तात्पर्य यह है कि तब समय ऐसा था कि कुनबे के सब भाई-बहनों का आपस में प्यार रहता था। खून के रिश्तों की परिभाषा व्यापक थी। कृषि पर पूरी निर्भरता के बावजूद खेतीबाड़ी को लेकर झगड़े और झंझट कम थे। एक-दूसरे का काम निपटाने की चिंता सबको रहती थी।
सब एक-दूसरे पर निर्भर थे और एक बड़े परिवार की तरह रहते थे। किसी का जन्म हो तो सब खुश और किसी का निधन हो तो सबके घरों के चूल्हे बुझ जाते थे। बूढ़े से लेकर बच्चों तक को बाल देने पड़ते थे। हां, इनमें दुधमुंहे बच्चे और जूठे बाल वालों (जिनका मुंडन न हुआ हो) को छोड़कर सब लाइन में बैठ जाते थे और एक-दूसरे के सिर के बाल साफ कर देते थे। बच्चे अपनी चोटियों को पकड़कर फुदकते और चहकते भोजन का इंतजार करते। कन्याओं को जिमाया जाता और उन्हें दक्षिणा भी दी जाती। विवाह होते तो सब अपना निजी काम-धाम छोड़कर विवाह की तैयारियों में अपना हाथ बटाते। महिलाएं पानी लातीं, दाल पीसतीं और आटे को गूंथतीं तो पुरुष चूल्हा लगाते, कनात और चांदनी सजाते, ढोल की थाप पर नाचते और बच्चे कौतूहल से देखते। खेतीबाड़ी का किसी का काम पिछड़ जाता तो पूरा गांव पड्याल (श्रमदान) करके उस परिवार का खेती का काम पूरा कर देता।
और ये सारे उपक्रम पड़ोस के गांवों तक सम्पन्न होते। आसपास के गांवों को शादियों में न्यौता जाता सबको। श्राद्ध जीमने के लिए चार-पांच किलोमीटर दूर तक के गांवों से न्यौते आते। पांच-दस किलोमीटर से लेकर बीस-तीस किलोमीटर के दायरे में आने वाले गांवों के लोग एक-दूसरे को ठीक से पहचानते। एक-दूसरे के परिवारों के बारे में ढेर सारी बातें जानते और राह चलते किसी भी अपरिचित से उसका परिचय पूछते। किसी राहगीर को अपनी मंजिल तक पहुंचने में देर हो जाती तो उसे रात को भोजन और आश्रय देते। साधु-संतों और जोगी-जोगनियों को भिक्षा-दक्षिणा और भोजन के साथ-साथ आश्रय दिया जाता। आसपास के गांवों के तमाम लोगों को रिश्तों के साथ संबोधित किया जाता और बुजुर्गों को यथोचित सम्मान मिलता। ऐसा था मेरा उत्तराखण्ड आधी सदी पहले तक भी।
धीरे-धीरे बदलाव आने शुरू हुए और गांवों में जमीन-जायदादों को लेकर झगड़ों का क्रम तथा एक-दूसरे से जलन में प्रतियोगिता करने का चलन शुरू हुआ। लेकिन तब भी बहुत कुछ बचा था। याद आता है कि जब मैं बारह-पन्द्रह साल का था और गांव के ऊपर सड़क आ गई थी तब गांव के हर परिवार का कम से कम एक सदस्य सड़क तक आकर दिल्ली या किसी और शहर जाने वालों को विदा करने जाता। खूब रोना-धोना होता और विदा होने वाला यदि नौकरीपेशे वाला होता तो कन्याओं और छोटे बच्चों के हाथों में पैसे भी रखता। मोटर यानी बस आती और ‘देस’ जाने वाला भीगी आंखों के साथ बस में बैठ जाता तो सब दूर तक बस को जाते देखते और तब तक, जब कि बस ओझल न हो जाती।
गांव या आसपास के गांव के लोग शहरों के छोटे-छोटे मकानों में एकसाथ मिलकर रहते। सर्दियों में एक चारपाई में दो-दो लोग सो जाते तो गर्मियों में घरों के बाहर चारपाइयां बिछ जातीं। एक ही गुसलखाने और एक ही पाखाने को दस-पन्द्रह लोग इस्तेमाल करते। मिलजुल कर काम निपटाते और जब गांव जाते तो सबके पार्सल साथ जाते। यह गांव जाने वाले की जिम्मेदारी बनती कि सबके गांव जाकर पार्सल सौंपे। बदले में वह गांव की वस्तुएं लेकर शहर लौटता। रामलीला के दिनों में दिल्ली या अन्य शहरों में रामलीलाएं करते या अपने गांव जाकर यह कार्य करते। आरती के पैसों से मंदिर का जीर्णोद्धार होता या स्कूल को चंदा जाता। दिल्ली जैसे शहरों में लोग धन संग्रह समितियां या भातृमंडल बनाते। पैसा जुटाते और चंदे का पैसा अपने इलाके के स्कूल के संचालन और अध्यापकों के वेतन के लिए भेजते। यह सब काम छोटी-छोटी नौकरियां करने वाले करते थे। इनमें से ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में चपरासी, लिफ्टमेन या चौकीदार होते और कुछ बाबू या मझोले दर्जे के अधिकारी। दिल्ली में ये लोग अलीगंज या सेवानगर जैसी कालोनियों में ज्यादा रहते थे। यह दौर भी पहले दौर जैसा मेल-मिलाप और सहकारिता का था।
समय ने फिर अंगड़ाई ली और चीजें तेजी से बदलने लगीं। सत्तर और अस्सी के दशक में पर्वतीय प्रवासी समाज ही नहीं बल्कि उत्तराखंड में रहने वाले समाज में भी तेजी से बदलाव आए। राजनीतिक चेतना के अलावा सड़कों के रास्ते वे तमाम चीजें भी आयीं जो समाज को सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से प्रभावित और विचलित करती हैं। इन्हीं रास्तों से वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और अपराध आये और इन विकृतियों ने समाज के पूरे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। यह समाज में बड़े बदलाव का दौर था।
समय कैसे बदला, इसका एक उदाहरण। मेरी मां जब बूढ़ी नहीं थी तब पूरे गांव के काम आती थी। प्रसव वेदना में तड़पती अनेक महिलाओं को मौत के मुंह में जाने से मेरी मां के भीतर की स्वप्रशिक्षित दाई ने बचाया था। गांव के अन्य लोग भी ऐसे ही थे। हमारे परिवार में यदि कोई बीमार हो जाता तो गांव की चाचियां, बोडियां और भाभियां पूरी रात जागकर तीमारदारी करतीं। ऐसा सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा था। लेकिन जब मेरी मां बूढ़ी हो गई और अस्सी को पार कर गई तब तक गांव और पहाड़ के परिवेश में बहुत-कुछ बदल चुका था। अपने परिवारों में वंचित जिन बहुओं को मेरी मां छिपकर भोजन कराती थी, वे भी मां के पास कभी कभार आतीं। कुछ बच्चे जरूर मां के लिए पानी रख जाते तो कुछ बच्चे पैसे के रूप में मेहनताना लेकर बाजार से सामान खरीद लाते। हम जब बच्चे थे, तब ऐसा नहीं होता था कि गांव के किसी वृद्ध के लिए बाजार से सामान खरीदने के बदले में पैसे लेते।
मां की मजबूरी थी कि वह गर्मियों में दिल्ली हम भाइयों के पास नहीं रह पाती थी, केवल सर्दियोें में ही दिल्ली आती थीं। कुछ लोगों ने तो ताने देने भी शुरू कर दिए कि तीन बहुओं के बावजूद बुढ़िया गांव आकर गांव वालों पर बोझ क्यों बन जाती है। हम हर दो-चार माह में गांव जाकर मां के लिए व्यवस्थाएं करते रहते।
कहने का तात्पर्य यह कि गांव की पहले वाली सहभागिता यदि जिंदा होती और गांव के लोग पालकी इत्यादि में बिठाकर मेरी मां को सड़क तक पहुंचा पाते तो शायद रक्तचाप न बढ़ता और उसे मस्तिष्काघात भी न होता। ऐसा आज न जाने कितने वृद्धों के साथ हो रहा होगा। अपनी मां का उदाहरण तो मैंने मात्र बात को समझाने के लिए दिया है। मां जब श्रीकोट स्थित बेस अस्पताल में भर्ती थी तो गांव और रिश्तेदारी से बहुत कम लोग उसे देखने आये। मां बूढ़ी हो गई थी और अब वह किसी के काम नहीं आ सकती थी, लिहाजा उसका हालचाल पूछने की जरूरत सबको नहीं थी। मां के मायके से उसका कोई भी भतीजा उसे देखने नहीं आया, जबकि मां ने अपनी जवानी के दिनों में अपने भाइयों की भरसक आर्थिक सहायता भी की थी। उनके कर्जे तक दिए थे। उनकी जमीनें साहूकारों से छुड़वाई थीं। अंततः, 20 अगस्त 2008 को मेरी मां दिल्ली में मेरे पास चल बसी।
हिन्दू मान्यता के अनुसार उन दिनों पंचक चल रहे थे पर किसी तरह रक्षाबंधन का त्योहार निकल गया था। मैं ऑफिस से फटाफट घर पहुंचा और लोगों ने औपचारिकतावश आना शुरू किया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बीमारी के दौरान आने के बजाय मां के निधन के बाद लोग ज्यादा क्यों आ रहे हैं। खैर निगमबोध घाट पर बिना ज्यादा सूचना के भी करीब डेढ़ सौ लोग जुट गये थे। उन्हें देखकर हौसला बढ़ना स्वाभाविक था। इनमें सबसे ज्यादा संख्या मेरे निजी और राजनीतिक मित्रों, पत्राकारों इत्यादि की थी। ऑफिस के एक-दो लोग, पुराने ऑफिस के चंद साथी और चंद रिश्तेदार और चंद गांव वाले। धीरे-धीरे लोग खिसकते चले गये। कुछ लोग चिता पर अग्नि प्रज्वलित होने से पहले और कुछ उसके तुरंत बाद।
सबसे खराब जो बात लगी वह थी कि अपने गांव के अनेक लोगों का लकड़ी (काठ) न देना और दूर खड़े रहना। हमें तो सिखाया गया था कि घाट पर लकड़ी जरूर देनी चाहिए। पर, समझ में आता है कि वैश्वीकरण और निजीकरण के दबाव ने तमाम संबंधों को अपने ढंग से व्याख्यायित कर दिया।
एक माह बाद जब 18 सितम्बर की सुबह गांव पहुंचे पितरकूड़ा कार्य के लिए तो औपचारिकतावश कुछ लोग घर पर मिलने आये लेकिन कुछ निकट परिवार वालों ने दूरी ही बनाकर रखी। यह वैश्वीकरण का ऐसा थप्पड़ था जिसका असर गालों पर अब भी है।
मां के निधन के बाद समाज को नये चश्मे से देखने का मौका मिला। बहुत कुछ ज्ञान अर्जित हुआ। मसलन रिश्तों की परिभाषा कैसे बदल गई और कैसे उन्हें मात्रा औपचारिकता की डोर जोड़े हुए है। कैसे समाज में लोभ, स्वार्थ और बदनीयती बढ़ गई है और कैसे दूसरों के सरोकारों और चिंताओं से मतलब न रखने के नये तौर-तरीके ईजाद हो गये हैं। साथ ही, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर भी बहुत कुछ घटा और बदला है. यह उल्लेख करना आवश्यक है कि समाज में जो भी परिवर्तन हो रहे हैं, उनमें से अधिकतर पतनशील हैं. समाज में विकृतियों बढ़ रही हैं और उन्हें रोकने के लिए किसी भी प्रकार प्रकार की कोई पहल नहीं है, राजनीतिक इच्छाशक्ति की तो बात ही छोड़ दीजिये.
मेरी आंखें के सामने ऐसे में अपना बचपन फ्लैशबैक की तरह कौंध गया। याद आया कि गांव में किसी के मरने पर किस तरह मातम छा जाता था और चूल्हों की आग कैसे बुझ जाती थी। बिना छौंक और बिना हल्दी वाला भोजन ‘शुभ’ होने तक खाना पड़ता था और हम बच्चों को तो यह बहुत ही खराब लगता था। बहरहाल, अच्छा भी लगता था कि किसी बोडा या बोडी के दुनिया से जाने के गम में हम भी शामिल हैं।
कई लोग बताते हैं कि गांवों में तो अब स्थिति और खराब हो गई है। घाट तक मुर्दा ले जाने वाले शाम को वापस लौटने पर शराब मांगते हैं। कैसी विडंबना है कि दुख में भी शराब चाहिए! दुनिया के अनेक इलाकों में बदलाव आये होंगे लेकिन मेरे पहाड़ उत्तराखंड में आये इन बदलावों से मैं आहत हूं। क्या हम सब मिलकर कोशिश नहीं कर सकते अपने पहाड़ को वैसा बनाने की जैसा सौ-दो सौ साल पहले था? दुःख होता है कि पूरा पहाड़ नये दौर से प्रभावित है।
पहले चैत्र महीने के दौरान गांवों में लोग और खासतौर पर बच्चे फूलदेई का त्यौहार उल्लास के साथ मनाते रहे हैं और यही त्यौहार कुमांऊ में इसी महीने की पहली गते को मनाया जाता रहा है लेकिन आज वह उत्साह देखने को नहीं मिलता है। बच्चे सुबह खेतों या जंगल से ताजा पूफल लाकर गांव के मकानों की देहरियों पर डालने के बजाए टीवी देखना अब ज्यादा पसंद करते हैं। शहरीकरण के कारण सांस्कृतिक मूल्यों में हो रहा यह ह्रास चिन्ता का विषय है। इसी प्रकार हम लोग अपने सांस्कृतिक प्रतीकों और बोली-भाषा के अर्थपूर्ण मुहावरों को भी भूलते जा रहे हैं। यह भी शोचनीय विषय है।
अंत में, क्या हम आने वाली पीढ़ी को यह कहानी सुनाकर ही खुश हो लेंगे कि उत्तराखंड के गांवों में लोग आपसी प्रेमभाव, सामंजस्य और एक परिवार जैसे रहते थे लेकिन एक दिन वैश्वीकरण का रोग लग गया और धीरे-धीरे गांव आपसी वैमनस्य, नकारात्मक प्रतियोगिता और उदासीनता के शिकार हो गये और अंततः एक सभ्यता समाप्त हो गई?